Thursday, April 16, 2009

स्पेस- कहानी

एक प्रवासी लेखकों की किताब के लिये, कहानी लिखने का हुक्म पूरा करने ये कहानी लिखी गई। प्रवास की सॆटिंग में लिखी कहानी-

स्पेस

"बड़े दुख से गुज़री हो तुम, है न? सच बड़ा कठिन समय रहा होगा"। उसे नहीं चाहिये थी सहानुभूति। साइको थेरैपी के लिये कई जगह जा चुकी थी वो। " क्या आप मेरी मदद कर सकती है? मुझ आगे बढ़ना है। मैं रोने नहीं आई हूँ यहाँ।" ये कह कर हर बार वापस आ गई थी वो। क्या कोई नहीं था जो उसकी मदद कर सकता था? उसके दर्द को समझ सकता था? आज डा. जोन्स के साथ थी अपाइंटमेंट, थेरैपी की। फिर एक बार कहानी बयान करनी होगी....

ज़ुकाम से सर भारी था। दफ़्तर नहीं जाना चाहती थी वो। मगर मार्च का महीना था। अकाऊंट क्लोसिंग आदि। सभी ओवरटाइम कर रहे थे। उसका छुट्टी लेना नामुमकिन था। मनोज भी कभी कभी बचकानी हरकतें करते हैं। सारी रात जाग कर ब्रिज खेलने को विवश किया था कल। रात तीन बजे सो कर फिर सुबह ६ बजे उठ जाना पड़ा था। दफ़्तर में जा कर देखा तो ४० ईमेल आये पड़े थे। अमित का भी ईमेल था, " याद है न? आज मिलना है, स्टार्बक्स में, चार बजे।" काम के बीच से निकल कर जाना मुश्किल था उसके लिये। अमित उसके बचपन का दोस्त था। इस शहर में एक वालमार्ट में अचानक ही मुलाक़ात हो गई थी उसकी। एक पल को तो दोनों हक्के बक्के रह गये थे, मगर फिर पुरानी खिलखिलाहट गूँज उठी थी। लगता ही नहीं था कि एक अंतराल के बाद मिले हैं दोनों। उसने झट से ईमेल का जवाब दिया, " आज नहीं हो पायेगा, काम है।"

शाम को घर पहुँच कर देखा तो अमित बैठा गप्पें लड़ा रहा था, मनोज के साथ। मनोज को जानती थी वह, किसी भी मर्द दोस्त का इस तरह घर आना उन्हें पसंद नहीं होगा। मगर दोनों बड़े मज़े से बातें कर रहे थे। हैरानी परेशानी में वह क्या कहे समझ नहीं आया था उसे। उसके जाने के बाद कहीं मनोज उसे कुछ कहें न। खाना खा कर ही टला था अमित। मनोज के सामने ही ’तुम’ कह कर संबोधित कर रहा था वह उसे। कैसे कहे, क्या समझाए वो किसी को।

लाल रंग का स्कार्फ़, लाल लंबे स्कर्ट के साथ सुंदर लग रहा था। उद्देश्य भी पूरा हो रहा था। मनोज एक बार रशिया गये थे। तब ले कर आये थे वो स्कार्फ़। साथ में मोतियों की एक माला भी थी। उस वक़्त गुजरात के एक गाँव में पोस्टिंग थी मनोज की। नई शादी थी, और उसका मन उड़ा ही करता था सारे दिन। एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में शादी के कुछ दिनों बाद ही रशिया जाना हुआ था मनोज का। वहाँ से आने के बाद, मनोज ने ही तो अपने हाथों से पहनाई थी वो माला। लाल, झकझक करती, आइने के सामने खड़े हो कर ख़ूब इतराई थी वह। आज स्कार्फ़ के साथ वो माला नहीं पहन पाई थी वो। सूना गला मगर स्कार्फ़ से ढका हुआ था। वो माला टूट गई थी। एक बूँद आंसू ढुलक पड़ा था अनजाने ही उसकी आँखों से। आफ़िस में फ़ोन पर अमित था," आज मिल रहे हैं वरना फिर आ धमकूँगा मैं।" " ऐसा मत करो अमित, प्लीज़।"

मारनिंग डेल पार्क। अक्सर ही शाम को मुलाक़ात होती थी उसकी अमित के साथ यहाँ। दोनों देर तक बातें करते रहे थे। "ज़रा धीरज, ज़रा सा...फिर सब ठीक होगा, यकीन मानो"। " मगर मैं खुश हूँ अमित, तुम मानते क्यों नहीं?" "हाँ जानता हूँ तुम खुश हो...ये भी कि कितना खुश।" आँखों में पानी लिये वो उठ पड़ी थी, और घर की ओर चल दी थी। 53A बस नम्बर, घर जाने का रास्ता, उसे सब से प्रिय था। रास्ते में एक सुनसान सड़क पड़ती थी, उसकी ज़िंदगी की तरह ही। चारों तरफ़ पेड़-पौधे, हरियाली, पर सड़क सुनसान। रोज़ उसे इस रास्ते से घर आना बहुत अच्छा लगता था। और सारे दिन की हँसी सहेज कर वह मनोज के हँसने का इंतज़ार करती थी। अब निर्भर करता था कि उस दिन मनोज किस मूड में है।

बस से उतर कर थोड़ी देर चलना पड़ता था उसे। आज घर का दरवाज़ा खुला हुआ था, जिसे देख कर हैरानी ही हुई थी उसे। ज़रा तेज़ क़दमों से चल कर वह जब अंदर पहुँची तो अचानक ही जैसे सारी दुनिया गोल मोल हो गई थी उसकी। मनोज सोफ़े पर लेटे थे और उनके मुँह से ख़ून...वह बौखला गई थी। ये कैसे हुआ। उसे पता नहीं था वह क्या करे। जल्दी से ९११ को फ़ोन कर के वह मनोज को जगाने लगी। ९११ से फिर फ़ोन आ गया। वह फ़ोन पर ही थी कि ऐम्बुलेन्स और फ़ायर ट्रक दरवाज़े पर खड़े थे। पुलिस भी धड़ल्ले से घुसी और थोड़ी ही देर में उसे पता चल गया कि मनोज अब इस दुनिया में नहीं है। शायद सीवियर स्ट्रोक की वजह से उसका देहांत हो गया था। वह नहीं जानती थी कि क्या करे। कैसे संभाले अपने आप को। कैसे ज़िंदगी संभाले। मनोज के बिना तो उसने ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं की थी।

शाम ढलने लगी थी। उसमें हिम्मत नहीं थी कि वो कुछ भी सोचे। घर से अभी ही भीड़ गई थी, पुलिस आदि। मनोज को अस्पताल ले जाया गया था। उसे भी जाना था। उसने जाने से पहले अमित के सेलफ़ोन पर काल किया। काल आंसरिंग मशीन पर गई। उसने उसे अस्पताल का ठिकाना दिया और अम्बुलेंस में सवार हो गई, अस्पताल जाने के लिये। वो नहीं सोचना चाह्ती थी कुछ भी। मनोज के साथ गुज़रे ८ साल जैसे उसकी आँखों के सामने से गुज़रने लगे थे। लाल मोतियों की माला...अभी भी तो वो मोतियाँ बेडरूम के फ़र्श पर बिखरी पड़ी हैं। उसने धीरे से अपना स्कार्फ़ खोला। और गले पर के नीले निशान उभर आये थे अब। अमित के जाने के बाद कल रात को मनोज ने हाथ से खींच कर उस माला को तोड़ दिया था। और फिर एक एक मोती पिरो कर उसे उसके गले में बाँधने की कोशिश की थी, इतने प्यार से...मगर अचानक ही जैसे उस माला से उसका गला घुट रहा था... वो एक पल को डर ही गई थी। मोतियाँ फिर बिखर गई थी फ़र्श पर।

अस्पताल में अमित पहले से ही इंतज़ार कर रहा था उसका। सारी फ़ार्मैलिटी पूरी करते करते देर हो गई थी। अमित से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती थी उसे। वो जैसे हर बात समझ जाता था उसकी। कितनी बार भी वो कहे कि वो ख़ुश है, अमित बार बार कहता कि सब ठीक हो जायेगा। सारी रात तो था अमित उसके साथ और सुबह चार बजे तक ही आना हो पाया था दोनों का घर। अभी तक रोने का तक समय नहीं मिल पाया था उसे। घर पहुँच कर उसने अमित से पूछा, " चाय लोगे?" फिर धड़ाम से बैठ गई थी वो सोफ़े पर और अचानक ही जैसे सैलाब सा फूट पड़ा था। आँसू रुके नहीं रुक रहे थे। कल की सुबह मनोज के बिना होगी। ये कैसी कश्मकश है। वो जिस ज़िंदगी से कई बार छुटकारा पाना चाहती थी, जिस आदमी को कई बार उसने मरने की बद-दुआ भी थी, वह आज सचमुच न रहने पर उसका सम्हलना मुश्किल हो रहा था। अजीब मन:स्थिति से गुज़र रही थी वह। और मनोज के बग़ैर एक पल भी तो नहीं रही थी वह।

शादी के बाद मनोज के साथ वो एक गाँव में रहने गई थी, गुजरात के। हमेशा ही एक छोटे से शहर में पली बड़ी, वो गाँव के माहौल को बहुत पसंद करती थी। जैसे मन की ही चाह पूरी हो गई थी उसकी। कुछ दिन बड़े अच्छे से गुज़रे थे। वहीं के एक छोटे से स्कूल में पढ़ाने भी लगी थी। मनोज भी जल्दी आ जाते थे दफ़्तर से। और फिर दोनों निकल पड़ते थे गाँव की सैर को, रोज़। मनोज को बच्चे पसंद थे। मगर कोई ३ साल बाद भी वो मां नहीं बन पाई थी। स्कूल से आ कर कभी-कभी वह रोने लगती थी। मनोज उसे दुलारते, सहलाते मगर ये भी न कहते कि बच्चे न हुये तो भी कोई बात नहीं। उस दिन को वो नहीं भूल सकती जब एक बार वो स्कूल से देरी से आई थी। मनोज ने आते ही एक चाँटा रसीद दिया था उसे। वह हक्की बक्की रह गई थी। उसने आश्चर्य और दर्द से पूछा था, " मनोज?" मनोज ने तभी उसके पैरों पर गिर कर माफ़ी मांगी थी। " तुम मुझसे दूर चली जाती हो तो मुझे बहुत बेचैनी होती है, मैं पागल हो जाता हूँ। " उसके बाद ऐसे कितने ही दिन आये थे जब मनोज ने उस पर हाथ उठाया था। और हर बार माफ़ी माँगी थी, प्यार किया था। वो मानना चाह्ती थी कि मनोज उससे बहुत प्यार करता है। वो उसके बिना रह नहीं पाता। और उसने मनोज का साथ एक दिन के लिये भी नहीं छोड़ा था। मां के देहांत के समय भी वो भारत नहीं जा पाई थी। मनोज उसके बिना रह नहीं सकेगा, उसे पता था। छ: साल बाद भी जब बच्चे नहीं हो पाये थे तो उसने सोचा था कि वो एक बच्चा गोद लेगी। और उसे याद है इस बात पर मनोज ने तीन दिन तक उस से बात नहीं की थी। अभी दो साल पहले ही तो दोनों अमेरिका आये थे। ...और वो फिर फूट फूट कर रोने लगी। अमित के कंधे का सहारा उसे बड़ा ही अपना सा लगा था उस वक़्त।

"सुनो, आज सात बजे तैयार रहना, शाम को निर्वाण में खाना खायेंगे।" अमित को वो ना नहीं कर पाती थी। मनोज को गये हुये छ-सात महीने से ऊपर हो गये थे और अमित उसका ख़्याल रखता था। "ठीक है अमित"।

शाम के ७:३० बज गये थे। घड़ी की सूइयाँ चल रही थीं। टिक टिक टिक...आठ बजे अमित के आने की आहट हुई। अमित के घर में आते ही, वो उबल पड़ी थी। ऐसी तेज़ आवाज़ में बात करना अमित को पसंद नहीं था। मनोज के जाने के बाद अमित ही उसका सहारा था। वहे निर्भर करने लगी थी उस पर। जीवन संग गुज़ारने के कुछ सपने भी शाय्द कहीं संजोने लगी थी वह। मगर अक्सर ही उसकी अमित के साथ किसी न किसी बात को ले कर बहस हो जाती थी और जाने किसे बात का गुस्सा आग बन कर बरसती थी अमित पर। आज वो फिर दोनों बाहर खाना खाने जा ही नहीं पाये थे। अमित के प्यार ने उसे सरचढ़ी हुई बच्ची सा बन दिया था। बहस, झगड़े के बाद हमेशा ही अमित समझौता कर लेता और अक्सर ही ऐसे दिनों में उसके पास रुक जाया करता था। आज भी वो रोती रही थी और अमित जागता रहा था। और वह सोचती रही थे कि यह अमित अपना वादा निभा भी तो सकता है, वक़्त का पाबंद क्यों नहीं....। दूसरे दिन उसने अमित से कहा था कि वो उसे आफ़िस तक छोड दे। आफ़िस में भी मन नहीं लगा था उसका। आज वह अमित से फिर माफ़ी मांग लेगी। क्या हो जाता है उसे भी...वह खुद नहीं समझ पाती थी। जिस घुटन की वह शिकार थी वह मनोज के साथ, वह कुछ ऐसा ही माहौल पैदा कर देती थी...और अमित कुछ कहता नहीं था।

"आज टीवी पर मेरा फ़ेवरिट शो है, तुम आ कर पास बैठो, साथ देखते हैं।"
" हूँ"
"अच्छा तुम्हें क्या लगता है, आखिरी में कौन जीतेगा?"
" तुम क्या टीवी देखना बंद नहीं कर सकते?"
" जान, तुम पास तो हो"
"पर मुझे कहाँ वक़्त देते हो तुम अब. जब भी आते हो टीवी पर ही..."
"ठीक है, अच्छा बोलो, क्या कहना है"
"अब क्या कहना है, आँखें तो तुम्हारी उधर हैं"
"जान, अभी तक हम साथ ही तो थे, और यह मेरा फ़ेवरिट शो है...साथ ही..."
"तुम मुझसे प्यार नहीं करते..."
"मैं अब तुमसे बहस नहीं कर सकता...चलता हूँ. कल आऊँगा"
वह भी मुँह बना कर बैठी रही थी और अमित उठ कर चला गया था। बात करते-करते उसने कब अमित पर मुक्कों की बरसात कर दी थी, उसे खयाल ही नहीं था। वह इतना ग़ुस्सा क्यों हो जाती है, क्या हो जाता है उसे?" ऐसी अनगिनत शामें गुज़री थीं। ओह! क्या सचमुच अमित उस से प्यार नहीं करता अब..?
अगर अमित उस से प्यार करना छोड़ दे तो? वो फिर फफक कर रो पड़ी थी।

अगले दिन अमित नहीं आया था। उसका सेल फ़ोन भी आंसरिंग मशीन पर ही जाता रहा था। शंकाये उसके मन को घेरने लगीं थीं। ऐसा तो कभी नहीं होता। अमित ही खुद उसको फ़ोन करता था, मनाता था। पागलों जैसी हालत होने लगी थी उसकी। रात को सो नहीं पाई वह। फिर दो दिन बाद अमित का फ़ोन आया था, " कल भारत जा रहा हूँ, तीन साल के कन्ट्रैक्ट जॉब पर। बहुत बार बताने की कोशिश की थी। मौक़ा नहीं मिला ठीक से। तुम ख़याल रखना अपना। और इस बीच मेरे बग़ैर जीना सीखो। खुशी अपने में होती है, कोई और खुशी नहीं दे सकता किसी को...! थोड़ा रुक कर फिर फ़ोन पर आवाज़ आई, "बहुत सोच कर देखा मैंने, हम नहीं रह सकते एक दूसरे के साथ, बहत कठिन बंधन जकड़ कहलाती है, साँस रुकने लगती है। मुझे लगता है हम दोनों को खुली हवा की ज़रूरत है।"

वह हक्की बक्की रह गई थी। इतिहास ने दोहराया था अपने को शायद। फ़र्क़ बस इतना था कि अमित ने जो रास्ता चुना, वह मनोज के साथ कभी नहीं कर पाई थी।

डा. जोन्स के शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे, "स्पेस, हनी, स्पेस। ऍंड लर्न टु लेट गो... दैट इज़ द मंत्रा"

--मानोशी

6 comments:

Shikha Deepak said...

बहुत कुछ सोचने को विवश करती हुई एक बेहद संवेदनशील कहानी।

दिगम्बर नासवा said...

"स्पेस हनी, स्पेस। ऐंड लर्न टु लेट गो... दैट इज़ द मंत्रा"

बहुत ही खूबसूरती से निभाई है यह कहानी आपने..............पूरी की पूरी एक साँस में पढ़ी गयी..........चुस्त है कहानी........रोचक......भावः पूर्ण..........अंत तक उत्सुकता बनी रहती है

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

किसी कहानी की विशेषता उसका कथ्य और शिल्प होती है .और आपकी इस कहानी में दोनों ही खूबियाँ हैं .शीर्षक पढ़ कर पहले तो मुझे लगा कि
कहानी कोई साइंस से रिलेटेड टापिक पर है .लेकिन कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ी उसका पूरा कैनवास सामने आता चला गया.नायिका के साथ ही मनोज और अमित तीनों ही चरित्रों को बखूबी उभारा है आपने इस छोटी सी कहानी में .अच्छी काम्पैक्ट कहानी .बधाई .
हेमंत

गौतम राजऋषि said...

अच्छी कहानी...अद्‍भुत लेखन-शैली

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

इसी तरह लिखिये और यूँ ही सुँदर ताने बानोँ से खेलती रहो मानसी .......

Puja Upadhyay said...

जिंदगी की सच्चाई को बेहद खूबसूरत ताने बाने में बाँधा है आपने. एक सांस में पढ़ गयी पूरी कहानी. अद्भुत लेखन है आपका...मंत्रमुग्ध कर देता है.