शमन के अंतिम चरण में थरथराती आस क्यों हो
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो
शांत हो जलती कभी तो संग स्पंदन के थिरकती
रात की स्याही से अपने रूप को रंग कर निखरती
देह जल कर भस्म हो उस ताप में, पर मन नहाये
अश्रु-जल की बूँद से वह पूर्ण सागर तक समाये
त्याग अंतर का अहं, हो पूर्ण अर्पण, प्यार वो हो
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो
अंग अंग सोना बना है गहन पीड़ा में संवर कर
प्रज्ज्वलित है मन किसी आनंद अजाने से निखर कर
प्रियतमा बैठी बनी जो, प्रेम बंधन कठिन छूटे
तृषित मन की कामना है मधु की हर बूँद लूटे
मधुर उज्वल इस दिवस की राह में कोई शाम क्यों हो?
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो
है अचेतन मन, मगर हर क्षण में उसी का ध्यान भी है
रोष है उर में मगर विश्वास का स्थान भी है
देह के सब बंधनों को तोड़ कर कोई अलक्षित
आस की इक सूक्ष्म रेखा बाँधती होकर तरंगित
पास हो या दूर हो उस साँस पर अधिकार वो हो
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो
(अमिताभ त्रिपाठी को धन्यवाद के साथ- इस कविता को अपनी पारखी नज़र देने के लिये)
शांत हो जलती कभी तो संग स्पंदन के थिरकती
रात की स्याही से अपने रूप को रंग कर निखरती
देह जल कर भस्म हो उस ताप में, पर मन नहाये
अश्रु-जल की बूँद से वह पूर्ण सागर तक समाये
त्याग अंतर का अहं, हो पूर्ण अर्पण, प्यार वो हो
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो
अंग अंग सोना बना है गहन पीड़ा में संवर कर
प्रज्ज्वलित है मन किसी आनंद अजाने से निखर कर
प्रियतमा बैठी बनी जो, प्रेम बंधन कठिन छूटे
तृषित मन की कामना है मधु की हर बूँद लूटे
मधुर उज्वल इस दिवस की राह में कोई शाम क्यों हो?
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो
है अचेतन मन, मगर हर क्षण में उसी का ध्यान भी है
रोष है उर में मगर विश्वास का स्थान भी है
देह के सब बंधनों को तोड़ कर कोई अलक्षित
आस की इक सूक्ष्म रेखा बाँधती होकर तरंगित
पास हो या दूर हो उस साँस पर अधिकार वो हो
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो
(अमिताभ त्रिपाठी को धन्यवाद के साथ- इस कविता को अपनी पारखी नज़र देने के लिये)
14 comments:
बहुत सुन्दर गीत. अच्छा लगा पढ़कर.
बहुत ही सुंदर पंक्तियां है ..
त्याग अंतर का अहं, हो पूर्ण अर्पण, प्यार वो हो
लौ को अपने दीप पर कुछ प्राण का विश्वास तो हो
बेहतरीन गीत. एहसास और विश्वास भावपूर्ण ढंग से व्यक्त हुए है.
behad sunder
acche bhav aur acchee rachana
मानती जी!
इतना सुन्दर गीत पढ़वाने के लिए धन्यवाद!
त्याग अंतर का अहं, हो पूर्ण अर्पण, प्यार वो हो
देह के सब बंधनों को तोड़ कर कोई अलक्षित
आस की इक सूक्ष्म रेखा बाँधती होकर तरंगित
बेहद ख़ूबसूरत पंक्तियां हैं, लेकिन आपकी भाषा को देखकर अचंभित हूं. सुन्दर निर्वाह किया है.
बहुत सुंदर भाव हैं, बधाई स्वीकारें।
करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाएं।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?
सुन्दर छन्दबद्ध कविता है ।
पास हो या दूर हो उस साँस पर अधिकार वो हो
लौ को अपने दीप पर कुछ प्राण का विश्वास तो हो
मानसी जी,
सुन्दर रचना---भावों का सुन्दर संयोजन्।
पूनम
बहुर सुंदर गीत बना है मानोसी ये...भाषा-प्रवाह छंद का लय और पंक्तियां खास कर "बन जो बैठी प्रियतमा अब प्रेम बंधन कैसे छूटे/तृषित मन की कामना है मधु की हर बूँद लूटे"...अहा!
सुन्दर रचना है ....... madhur गीत ........ आपको दीपावली की मंगल कामनाएं
मानोशी जी,
आपके इस गीत ने कुछ समय के लिये फ़िर एक बार मुझे हिन्दी साहित्य के छायावादी काल में पहुंचा दिया।बहुत ही खूबसूरत गीत ।
हेमन्त कुमार
इस शानदार और लाजवाब रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
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