Tuesday, October 06, 2009

दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो


शमन के अंतिम चरण में  थरथराती आस क्यों हो
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो

शांत हो जलती कभी तो संग स्पंदन के थिरकती
रात की स्याही से अपने रूप को रंग कर निखरती
देह जल कर भस्म हो उस ताप में, पर मन नहाये
अश्रु-जल की बूँद से वह पूर्ण सागर तक समाये

त्याग अंतर का अहं, हो पूर्ण अर्पण, प्यार वो हो

दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो

अंग अंग सोना बना है गहन पीड़ा में संवर कर
प्रज्ज्वलित है मन किसी आनंद अजाने से निखर कर
प्रियतमा बैठी बनी जो, प्रेम बंधन कठिन छूटे
तृषित मन की कामना है मधु की हर बूँद लूटे

मधुर उज्वल इस दिवस की राह में कोई शाम क्यों हो?

दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो

है अचेतन मन, मगर हर क्षण में उसी का ध्यान भी है
रोष है उर में मगर विश्वास का स्थान भी है
देह के सब बंधनों को तोड़ कर कोई अलक्षित
आस की इक सूक्ष्म रेखा बाँधती होकर तरंगित

Align Centerपास हो या दूर हो उस साँस पर अधिकार वो हो
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो

(अमिताभ त्रिपाठी को धन्यवाद के साथ- इस कविता को अपनी पारखी नज़र देने के लिये)

14 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर गीत. अच्छा लगा पढ़कर.

अजय कुमार झा said...

बहुत ही सुंदर पंक्तियां है ..

M VERMA said...

त्याग अंतर का अहं, हो पूर्ण अर्पण, प्यार वो हो
लौ को अपने दीप पर कुछ प्राण का विश्वास तो हो
बेहतरीन गीत. एहसास और विश्वास भावपूर्ण ढंग से व्यक्त हुए है.

mehek said...

behad sunder

Apanatva said...

acche bhav aur acchee rachana

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मानती जी!
इतना सुन्दर गीत पढ़वाने के लिए धन्यवाद!

संजीव गौतम said...

त्याग अंतर का अहं, हो पूर्ण अर्पण, प्यार वो हो
देह के सब बंधनों को तोड़ कर कोई अलक्षित
आस की इक सूक्ष्म रेखा बाँधती होकर तरंगित
बेहद ख़ूबसूरत पंक्तियां हैं, लेकिन आपकी भाषा को देखकर अचंभित हूं. सुन्दर निर्वाह किया है.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत सुंदर भाव हैं, बधाई स्वीकारें।
करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाएं।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?

शरद कोकास said...

सुन्दर छन्दबद्ध कविता है ।

पूनम श्रीवास्तव said...

पास हो या दूर हो उस साँस पर अधिकार वो हो
लौ को अपने दीप पर कुछ प्राण का विश्वास तो हो

मानसी जी,
सुन्दर रचना---भावों का सुन्दर संयोजन्।
पूनम

गौतम राजऋषि said...

बहुर सुंदर गीत बना है मानोसी ये...भाषा-प्रवाह छंद का लय और पंक्तियां खास कर "बन जो बैठी प्रियतमा अब प्रेम बंधन कैसे छूटे/तृषित मन की कामना है मधु की हर बूँद लूटे"...अहा!

दिगम्बर नासवा said...

सुन्दर रचना है ....... madhur गीत ........ आपको दीपावली की मंगल कामनाएं

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

मानोशी जी,
आपके इस गीत ने कुछ समय के लिये फ़िर एक बार मुझे हिन्दी साहित्य के छायावादी काल में पहुंचा दिया।बहुत ही खूबसूरत गीत ।
हेमन्त कुमार

Urmi said...

इस शानदार और लाजवाब रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!