घोर रातें अश्रु बन कर बह गईं,
स्वप्न की अट्टालिकायें ढह गईं,
खोजता बुनता बिखरते तंतु पर,
प्राप्त निधियाँ अनदिखी ही रह गईं,
भूल जाता मन कदाचित सत्य यह,
आग से तप कर निखर कंचन मिला।
यदि न पायी प्रीति तो सब व्यर्थ है,
मीत का ही प्यार जीवन अर्थ है,
मोह-बंधन में पड़ा मन सोचता कब
बंधनों का मूल भी निज अर्थ है,
सुख कभी मिलता कहीं क्या अन्य से?
स्वर्ग तो अपने हृदय-आँगन मिला।
वचन दे देना सरल पर कठिन पथ,
पाँव उठ जाते, नहीं निभती शपथ,
धार प्रायः मुड़ गई अवरोध से,
कुछ कथायें रह गईं यूँ ही अकथ,
श्वास फिर भी चल रही विश्वास से,
रात्रि को ही भोर-आलिंगन मिला।
क्या यही कम है कि यह जीवन मिला|
10 comments:
प्राक्रितिक सुंदरता से सराबोर ,कोमल एहसास वाली सुंदर रचना ।
मन के भावों का मंद मंद झोंका मन प्रसन्न कर गया...!!
यदि न पायी प्रीति तो सब व्यर्थ है,
मीत का ही प्यार जीवन अर्थ है,...
बहुत खूब ... सच है प्रेम नहीं है तो जीवन व्यर्थ है ...
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
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संविधान निर्माता बाबा सहिब भीमराव अम्बेदकर के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
आपका-
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कहीं धूप तो कहीं छाँव..
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 19 -04-2012 को यहाँ भी है
.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....ये पगडंडियों का ज़माना है .
आज अनूप जी की एक पुरानी पोस्ट पढते हुए आपके ब्लॉग का लिंक मिला, और यहाँ तो खजाना है , एक एक करके पढते हैं !!!!
'वचन दे देना सरल पर कठिन पथ,
पाँव उठ जाते, नहीं निभती शपथ,
धार प्रायः मुड़ गई अवरोध से,
कुछ कथायें रह गईं यूँ ही अकथ,'
- और अकथ कथायें नये-नये रूप धर मुखर होने लगती हैं !
सुन्दर प्रस्तुति... अच्छी रचना... बहुत बहुत बधाई...
सुन्दर गीत!
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