क्या कहना चाहती हूँ नहीं जानती,
बस लिख रही हूँ तुम्हें...
एक ज्वार सा उमड़ता है कहीं,
रेत के कण, सीपी, मोती...
सब ले कर बहता है
यह मन,
तुम्हारे साथ के पल-पल का हिसाब
धीरे धीरे सुस्ती से,
उलट कर पलट कर
हर कोण से परखते हुये
देखता है, देख-देख कर
हँसता है, मुस्कराता है
और फिर उदास हो जाता है,
कहना चाहती हूँ बहुत कुछ
पर अभी तुम सो रहे होगे,
ख़्वाबों में शायद तुम भी
उन्हीं पलों को परख रहे हो,
कहीं मेरे जगाने से
कोई पल फ़िसल कर गिर गया,
टूट गया...
तो तक़लीफ़ मुझे भी होगी न?
कुछ भी साकार नहीं
न वह मिलन ,
न यह विरह,
कहना चाहती हूँ बहुत कुछ...
पर तुम कहते हो
कहो नहीं!
कहो नहीं!
कह देने से हल्की हो जाती हैं बातें...!
चलो, यह अहसास ही, कि तुम हो मेरे
अहसास, कुछ भी तो साकार नहीं
क्या कहना चाहती हूँ नहीं जानती
बस लिख रही हूँ तुम्हें|
2 comments:
लिखते लिखते समझना आ जाता है..
... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
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