ज़िंदगी गुम हो रही है
आधुनिकता ढो रही हैं
खिंच रहा है बेलगाम मन
चमचमाती खनक सुन कर
छिछले होते जा रहे
अनूभूति के गहरे समंदर
बन गया है आदमी अब
एक मन रहित सा पुर्ज़ा
भावनायें,प्रेम, विरह सब अट्ठहास सी कर रही हैं
हृदय स्वार्थी हो गया है
एकनिष्ठता मूर्खता है
मूल्य टूट कर बिलख रहे हैं
मां की पूजा असभ्यता है
बाप को सब से मिलाना
हो गया है शर्मनाक सा
नीति की बातें पुरानी जैसे लंगड़ा सी रही हैं
खिलखिलाते बच्चों के अब
हाथ में कटार होती
गोलियाँ अब बात-बात पे
बात के बदले में चलती
अटका है मन ठाठ-बाट के
चक्रव्युह में फ़ँसा हुआ सा
ज़िंदगी बस होड़ में खु़द को पछाड़े जा रही है
कई मुखौटों में छिपा है
आदमी का असली चेहरा
कई परत नीचे दबा
आदर्श का पुराना ढर्रा
बड़ी हैं सीमायें, मगर दिल
धीरे-धीरे सीमित हुआ है
आस्था मर्यादा की परिभाषायें अब बदल रही हैं
13 comments:
कई मुखौटों में छिपा है
आदमी का असली चेहरा
कई परत नीचे दबा
आदर्श का पुराना ढर्रा
बड़ी हैं सीमायें, मगर दिल
धीरे-धीरे सीमित हुआ है
आस्था मर्यादा की परिभाषायें अब बदल रही हैं
-क्या खूब कहा है, वाह!!
बड़ी भयंकर कविता है!
कई मुखौटों में छिपा है
आदमी का असली चेहरा
कई परत नीचे दबा
आदर्श का पुराना ढर्रा
नवीन आशाओं के बीच पुराने मुखौटे उतर जाएँ ...
बहुत शुभकामनायें ..!!
सब कुछ बदल रहा है यह बात बिल्कुल सही है पर इन सब के लिए हम और हमारे अपने भी ज़िम्मेदार है जो और भी तेज़ी से बदल रहे है.
बहुत बढ़िया प्रस्तुति..सुंदर भाव और संदेश से भरी कविता.. धन्यवाद!!!
this is my first visit to your blog. Its a great postek ek pankti me sagar kee see gahrai hai .
badhai itanee pyaree rachana ko janm dene kee .
बिल्कुल सही कहा आस्था और मार्यादाओ की परिभाषा बदल रही है ..........एक यथार्थ कविता........
बदलते समय के साथ हर किसी को बदलना पडता है। परिवर्तन को रेखांकित करती सुंदर कविता है,बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बड़ी हैं सीमायें, मगर दिल
धीरे-धीरे सीमित हुआ है.......
sach kaha hai .. dil aur sikudte jaa rahe hain ...... yathaart ke kareeb se likhi kavita .....
बेहद अच्छे तरीके से आपने अभिव्यक्ति दी है.
कई मुखौटों में छिपा है
आदमी का असली चेहरा
कई परत नीचे दबा
आदर्श का पुराना ढर्रा
वाह!!
मानसी जी,
बहुत ही सामयिक और सार्थक कविता लिखी है आपने ----आज वाकयी आदमी की जिन्दगी ,सोच,सभी कुछ बदल गया है।
पूनम
सही कहा आपने, वक्त के साथ हर चीज बदल जाती है।
Think Scientific Act Scientific
कई मुखौटों में छिपा है
आदमी का असली चेहरा
कई परत नीचे दबा
आदर्श का पुराना ढर्रा
बड़ी हैं सीमायें, मगर दिल
धीरे-धीरे सीमित हुआ है
आस्था मर्यादा की परिभाषायें अब बदल रही हैं
अच्छी और सा्मयिक कविता--
हेमन्त कुमार
maanji ji
namaskar
bahut acchi kavita
aaj ke samay ki sachhai kahti hui . shabdo ka bahut accha prayog hua hai .. meri badhai sweekar kare..
regards
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
Post a Comment