मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
मैं ज़मीं में दफ़्न था ऊपर जहां चलता रहा
बस मुकम्मल होने की उस चाह में ताउम्र यूँ
ख़्वाब इक मासूम सा कई टुकड़ों में पलता रहा
था नहीं कोई धुआँ और आग भी थी बुझ चुकी
बेसबब फिर रात भर मैं आँख क्योँ मलता रहा
बेसबब फिर रात भर मैं आँख क्योँ मलता रहा
दुनिया की रस्मों में कुछ यूँ हो गई मस्रूफ़ियत
अपने मरने का भी मातम कब मना, टलता रहा
उसको अब मुझसे शिकायत है कि मैं कमज़ोर हूँ
’दोस्त’ जिसकी ख़्वाहिशों में उम्र भर ढलता रहा
फ़ाइलातुनx3 फ़ाइलुन
(बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़)
20 comments:
एकदम से सुबह जागकर पहली पोस्ट यही पढ़ी । इन पंक्तियों ने खासा प्रभावित किया -
"आग थी ना था धुआँ फिर क्या हुआ कि रात भर
बेवजह ही जागकर मैं आँख यूँ मलता रहा"
मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
अब ज़मीं में दफ़्न हूँ ऊपर जहां चलता रहा
बहुत खूब। मुझसे है सारी दुनिया के भ्रम में हम ताउम्र जीते हैं और एक दिन खाली हाथ जमीन में दफ्न हो जाते हैं।
बहुत खूब। भाव, शब्द और रवानगी के साथ बेहतर प्रस्तुति। बधाई। चलिए एक त्वरित तुकबंदी मेरी ओर से भी-
आँधियाँ थीं जोर पे और थी कमी बस तेल की।
फिर भी दीपक रात भर कैसे यहाँ जलता रहा।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
अब ज़मीं में दफ़्न हूँ ऊपर जहां चलता रहा
-वाह वाह!! क्या बात कही है, बहुत खूब!!
मानसी, आपकी पिछली अभिव्यक्तियों में ये ज्यादा पसंद आई-
उसको अब मुझसे शिकायत है कि मैं कमज़ोर हूँ
’दोस्त’ जिसकी ख़्वाहिशों में उम्र भर ढलता रहा
दुनिया की कुछ रस्मों में मैं यूँ हुआ मस्रूफ़ कि
अपने मरने का भी मातम ना मना, टलता रहा
umda sher!
bahut hi achchee ghazal hai.
sabhi sher bahut achchey lagey.
दुनिया की कुछ रस्मों में मैं यूँ हुआ मस्रूफ़ कि
अपने मरने का भी मातम ना मना, टलता रहा
बढ़िया गजल का बढ़िया शेर ......
शुभकामनाएं .
हेमंत
"मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
अब ज़मीं में दफ़्न हूँ ऊपर जहां चलता रहा"
This is FANTASTIC...
"There is no one who is irreplaceable."
We used to say that in IAF. And that is always true.
~Jayant
मानोशी जी ,
पूरी गजल बहुत बढ़िया .पर इन पंक्तियों की बात ही और है...
मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
अब ज़मीं में दफ़्न हूँ ऊपर जहां चलता रहा
पूनम
मतले ने तो जान ही निकाल दी...वाह!
और इस ’दोस्त’ तखल्लुस का इतना बेहतरीन इस्तेमाल आप करती हो कि बस देखते बनता है..
एक शक-सा था..."अपने मरने का भी मातम ना मना, टलता रहा" इस मिस्रे में आपने "ना" का वजन दीर्घ {2} में लिया है ना? ये जायज है ना? इसलिये पूछ रहा हूँ एक गज़ल बन रही है तो उसमें मुझे "ना" को दीर्घ में लेने की दरकार है...
सभी को शुक्रिया, गज़ल को पसंद करने का।
@ गौतम- ’ना’ को मैंने दीर्घ ही लिया है। महावीर जी ने कहा कि हिन्दी में ऐसा हो सकता है। इसके अलावा एक बार सुबीर जी को एक गज़ल भेजी थी, अपनी कुछ जानकारी के लिये, रैन्डम। उन्होंने अपने बड़प्पन का परिचय देते हुये, एक शेर सुधारा था जिसमें उन्होंने ’ना’ को दीर्घ लिया था- इस शेर को देखो-
कोई बतलाये हमको क्यों मुहब्बत रास ना आती
वगरना इश्क़ में हमने कहाँ कोई कमी की है
thanx manoshi, मेरा काम आसान हो गया थोड़ा....
पूरी ग़ज़ल बहुत लाजवाब है..........मुझे लगता है भाव अच्छी हों तो ग़ज़ल अच्छी हो ही जाती है
बस मुकम्मल होने की उस चाह में ताउम्र यूँ
ख़्वाब इक मासूम सा कई टुकड़ों में पलता रहा
कितना खूबसूरत एहसास है इस शेर में ..........मासूम से ख्वाब की चाह तो पूरा होने की ही होती है
आग थी ना था धुआँ फिर क्या हुआ कि रात भर
बेवजह ही जागकर मैं आँख यूँ मलता रहा
जीवन की बेबसी इतने मासूम तरीके से कही है .........
दुनिया की कुछ रस्मों में मैं यूँ हुआ मस्रूफ़ कि
अपने मरने का भी मातम ना मना, टलता रहा
इसमें तो जीवन का दर्शन समेटा है..........यथार्थ है ..........
मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
अब ज़मीं में दफ़्न हूँ ऊपर जहां चलता रहा
बहुत लाजवाब !
अरे वाह...इस जगह तो बड़ी गहराई है..
यह जगह अब तक मेरी पकड़ में क्यूँ नहीं आई है.....
यहाँ दिखाई पड़ रही हैं बहुत सी मुकम्मल बातें.....
इन बातों में भी प्यार की रौशनाई है.....!!
हम तो हैं गाफिल कभी जल्दी से फिसला नहीं करते
आज मानसी की बात पर तबियत फिसल आई है.....!!
आग थी ना था धुआँ फिर क्या हुआ कि रात भर
बेवजह ही जागकर मैं आँख यूँ मलता रहा
सिर्फ ये एक शेर ही नहीं पूरी ग़ज़ल ही लाजवाब है...देरी से आया इसके लिए माफ़ी...लेकिन आ कर मन प्रसन्न हो गया...बधाई.
नीरज
मनोशी, ८ दिन हो गए इस ग़ज़ल को। आज भी इसकी ख़ूबसूरती, ख़ुश्बू पहले दिन की तरह की ताज़गी लिए हुए है। मतला पूरी ग़ज़ल पर हावी है, लेकिन सारे ही अशा'र बोलते से लगते हैं। नेट पर नव ग़ज़लकारों की ग़ज़लों से तुम्हारी शैली काफ़ी भिन्न है, इस वजह से यह ज़रूर कहूंगा कि तुम्हारा एक अपना अंदाज़ है जो पढ़ने में अच्छा लगता है।
plz write about voice uploading on my email.....as you said
उसको अब मुझसे शिकायत है कि मैं कमज़ोर हूँ
’दोस्त’ जिसकी ख़्वाहिशों में उम्र भर ढलता रहा
बहुत ही उम्दा और कामयाब ग़ज़ल कही है आपने
मुबारकबाद कुबूल फरमाएं ......
मेरी ग़ज़ल को पसंद फरमाने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया
---मुफलिस---
उसको अब मुझसे शिकायत है कि मैं कमज़ोर हूँ
’दोस्त’ जिसकी ख़्वाहिशों में उम्र भर ढलता रहा
बहुत सुन्दर ग़जल लिखी है आपने...मैं सोचता हूँ हर शब्द यथार्त के बहुत करीब है..
Post a Comment