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Thursday, July 19, 2012

दो कवितायें


डिवोर्स

सपनों का घरौंदा
चांद, तारे, शबनम, कुहरा...
सब का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा
जोड़ कर
बनता है
एक पूरा आसमां
और कभी
किसी रात के सन्नाटे में
बिखर जाता है चाँद,
टूटता हैं चूरा-चूरा तारा
टपकती है कोरों से शबनम
कट जाती है कुहरे की झीनी चूनर
और गिर जाता है पर्दा...
मगर कोई नहीं जान पाता
पर्दे के पीछे रोती है दीवार।
एक कहानी खत्म होती है...
कहीं नई सुबह की शुरुआत
और कहीं शाम का अंत!

यादें


रेत पर बने निशान...
कुरेदने पर मिलती है
नीचे एक कहानी,
पुरानी चिपचिपी सी
जो छोड़ती नहीं है साथ,
तार-तार रेशा
अंग-अंग लिपटा रहता है
हर वक़्त...
कुछ यादें क्यों होती हैं
इतनी गाढ़ी?




Sunday, October 09, 2011

प्रोत्साहन बहुत ज़रूरी है


बच्चों के साथ रोज़ जाने कितने ही अनुभव होते रहते हैं।  कक्षा २/३ के छात्र-छात्रायें। ७-८ साल के बच्चे। रोज़ ही किसी न किसी वजह से एक बार खुल कर हँस लेने का मौका मिल ही जाता है।  यहाँ के नियम के अनुसार, सारे दिन ही शिक्षिका को कक्षा के बच्चों के साथ रहना होता है।  चाहे कोई भी विषय हो, उन्हें एक ही शिक्षिका को पढ़ाना होता है (कुछ एक को छोड़ कर)।  इस तरह शिक्षक/ शिक्षिका और बच्चों के बीच का संपर्क बहुत मज़बूत होता है।  एक दिन मेरे स्कूल न आने से बच्चे उदास हो जाते हैं और अगले दिन बच्चों से सबसे पहले यही सुनने को मिलता है, " आई मिस्ड यू येस्टर्डे"।  उपस्थिति मार्क करते समय बच्चे मुझे गुड्मार्निं कहते हैं।  कार्पेट पर बैठ कर बच्चे अपनी पिछले दिन की कई घटनायें बताते हैं।  सारा दिन उनके साथ किस तरह गुज़र जाता है पता ही नहीं चलता।

कई छोटी-छोटी बातें होती ही रहती हैं।  कल रीसेस के समय दो बच्चियाँ मेरे पास आईं, " आपके लिये हमने एक केक बनाया है...चॉकोलेट आइसिंग वाला"। मैंने कहा अच्छा? वो कैसे? तो पता चला कि रीसेस में उन्होंने खेलते हुये मिट्टी और पत्थर से मेरे लिये एक केक बनाया था। तो वो चाहतीं थी कि मैं उस केक को काटूँ। तो भई हम ने भी उस केक को काटा...कहा, कितना सुंदर है...आदि :)  बच्चियों की चेहरे की खुशी देखते बनती थी।

सराहना बच्चों के लिये बहुत बड़ा प्रोत्साहन का काम करती है।  प्रोत्साहन भी दो तरह के होते हैं- एक प्रोत्साहन वह कि बच्चे किसी चीज़ की आशा में अपना काम करें। यह अच्छी बात है मगर दूसरा प्रोत्साहन वह जो कि जो अन्दरुनी परिवर्तन लाये।  बच्चा खुद अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर उस काम को करे, किसी प्राइज़ की आशा में नहीं।  सराहना करते वक़्त सिर्फ़ इतना कह देना कि ’वाह बहुत अच्छा जवाब दिया’ और एक "गुड" लिख देना काफ़ी नहीं होता। साथ में ये भी बताया जाये कि क्या अच्छा था जवाब में। इसके अलावा भी जवाब में और क्या होना चाहिये था कि जवाब और अच्छा होता। कक्षा में गलत जवाब के लिये कभी भी सज़ा नहीं दी जानी चाहिये।  सज़ा भला क्यों? कि उसे जवाब नहीं आया? या उसका ध्यान नहीं था पढ़ाई में।  अगर बच्चे को नहीं आता कोई जवाब तो मौका दिया जाये कि वो अपने साथी के साथ मिल कर जवाब तलाशे और फिर खुद इन्जडिपेंडेट्ली जवाब दे। इस तरह बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ता है। सज़ा ( वह भी ऐसी जिससे बच्चा कुछ सीखे) सिर्फ़ व्यवहार या अन्य वाजिब वजह से दी जानी चाहिये। जैसे मेरी कक्षा में बच्चे कोई काम करना भूल जायें (जैसे रीडिंग लॉग या स्कूल डायरी न साइन करवाई हो अनुभावकों से) तो ज़रूर सज़ा मिलती है उन्हें कि वो अपना काम याद रखें अगले दिन के लिये।  उन्हें अपने मूल्यवान रीसेस के आधे घंटे में से २ मिनट देने होते हैं यानि सभी मित्रगण खेलने गये पर वो दो मिनट बाद जायेंगे। और जो बच्चे यह सब साइन करवा के लायें, उन्हें एक स्टिकर मिलेगा और ३० स्टिकर इकट्ठा कर लें वे तो एक प्राइज़।  हाँ होमवर्क न करे कोई, तो रीसेस में मेरे साथ बैठ कर करना होगा होमवर्क...! प्राय: सभी बच्चे अपना काम करते हैं इस तरह।

कल एक बच्ची का जन्मदिन था मेरी कक्षा में। मेरे पास एक बक्सा है, छोटा सा कार्ड्बोर्ड का। बच्चे जानते हैं कि टीचर का यह ट्रेशर बॉक्स किसी के जन्मदिन पर खुलता है या टीचर बहुत खुश हो किसी के व्यवहार से तो ही। तो उस वक़्त उस बच्चे को उस ट्रेशर बॉक्स से आँख बंद कर के कोई भी चीज़ चुनने का मौका मिलता है। वह एक छोटी सी किता ब भी हो सकती है, कोई पेन या कोई खिलौना भी।  बच्चे नहीं जानते कि उस बक्से के अंदर क्या है।  देखा जाये तो यह सब बाह्य प्रोत्साहन हैं (extrinsic motivation) लेकिन कई बातों के लिये बहुत कारगर।  बच्चे द्वारा किये गए किसी भी अच्छे काम की सराहना और यह बताना कि वो काम क्यों अच्छा था, इसके क्या अच्छे फल हुये अन्दरुनी प्रोत्साहन का उदाहरण है।  उसी को नियम बना लेना बच्चों की आदत में ढल जाता है फिर।  पूरे जीवन के लिये एक अच्छी शिक्षा।

फिर अगले सप्ताह की शुरुआत होगी। बच्चों की खिलखिलाहट सुनने को मिलेगी और उनके सप्ताहांत के अनुभव सुनने को। मैं भी उन्हें बताने को उत्सुक हूँ कि इस सप्ताहांत मेरी पिट्स्बर्ग की यात्रा, रंगीन पेड़ों को देखते हुये कैसी रही...।  फिर फ़ॉल कलर्स पर कुछ चित्र बनाने का आर्ट प्रोजेक्ट उसी से संबंधित...








Sunday, December 19, 2010

बच्चे मन के सच्चे

स्कूल में पढ़ाते हुये कितने ही अनुभव होते रहते हैं।  कुछ खट्टे, कुछ मीठे...कई छोटी-छोटी घटनायें होती रहती हैं, मगर ज़्यादातर ही, ये घटनायें मानसपटल के किसी कोने में कुछ दिनों के लिये कैद होती हैं और फिर धीरे-धीरे धूमिल। बच्चों की बातें, अक्सर ही मेरे चेहरे पर एक मुस्कान बिखेर जाती है।

कल क्रिसमस की छुट्टियों के पहले आखिरी दिन था स्कूल का।  पढ़ाई कम, गिफ़्ट-एक्सचेंज और खेल ज़्यादा। सभी बहुत खुश थे, बच्चे, टीचर, सभी...माहौल छुट्टियों का, क्रिसमस का...

रीसेस के बाद, बच्चे कक्षा में आकर बैठने लगे थे।  सबके कक्षा में आने का इंतज़ार कर रही थी मैं कि एक बच्ची आ कर उदास चेहरे से अपनी सीट पर अनमनी हो बैठी। कक्षा तीसरी की वह बच्ची, बहुत होशियार और मिलनसार है। मैं उसके पास गई और पूछा-

"क्या हुआ बेटा? आप इतनी उदास क्यों बैठी हैं? "

"कुछ नहीं..."

"अच्छा, अभी बाहर रीसेस में कुछ हुआ? किसी सहेली या दोस्त से अनबन हो गई? क्या बात है?"

"नहीं कुछ नहीं... "

"अच्छा जब तक तुम अपनी भावनाओं के बारे में बताओगी नहीं कैसे पता चलेगा? इसलिये अपने दिल की बात कह देना सबसे अच्छा होता है।  क्या हुआ है?"

"वो...वो...जेनेट है न, वो रिचर्ड को, वो जो कक्षा दूसरी में है...उसे पसंद करती है।  तो क्रिसमस के लिये रिचर्ड ने जेनेट को फूल और ज्वूलरी दी है। तो जेनेट उसी के साथ खेल रही है। मेरे साथ नहीं खेल रही।"

एक बार मन ही मन हँस पड़ी मैं।  कक्षा दूसरी का ७ साल का बच्चे का कक्षा तीसरी की ८ साल की बच्ची को पसंद करना और इस बच्ची का बहुत ही सीरियसली इस वाकये का कहना और फिर उसे कोई ऐसा तोहफ़ा न मिल पाने का गम...मैं ने अपनी मुस्कान छुपा कर उतने ही गंभीरता से कहा,

"अच्छा, तो ये बात है।  जेनेट तो तुम्हारी सबसे अच्छी दोस्त है, तुम दोनों ही एक क्लास में हो तो उसे बताओ कि तुम भी उसके साथ खेलना चाहती हो, और रिचर्ड भी तो तुम्हारा दोस्त है, तीनों साथ-साथ खेलो।"

"पर वो नहीं खेलते मेरे साथ अब..."

"अच्छा तो ऐसा करो, उन्हें बताओ कि इस से तुम्हारी भावनायें आहत होती हैं। और फिर उन्हें भी थोड़ा खेलने दो, तुम्हारे और भी कितने अच्छे दोस्त हैं, उनके साथ भी खेलो..है न?

"ह्म्म्म...."

बच्चे आहत होते हैं तो परिष्कार मन से कह देते हैं। और हम...अपने अहम में, और भी जाने कितनी बातें सोच कर कह नहीं पाते...और क्या सब समझ ही पाते हैं?

Sunday, June 13, 2010

उस मोड़ से शुरु करें ये ज़िंदगी- जगजीत सिंह

जिस मोड़ पर ठहरे हो, वहाँ से दो रास्ते हैं, एक लौट जाता है पीछे और एक ठहर जाता है। आगे नहीं जाता।  ठहर कर पीछे मत देखो, आगे देखोगे तो भी पीछे देखना होगा।  बस ठहरे रहो। हवा उड़ा ले जायेगी तो चले जाना, हवा के साथ। पर तब भी मत देखना पीछे।  वो तुम नहीं थे, हवा थी जो गई, तुम तो अभी भी ठहरे रहोगे, वहीं।  किसी का हाथ पकड़ कर नहीं, अपना हाथ पकड़ कर रहो, वो तुम्हारे साथ था तो वहीं होगा, अपने मोड़ पर ठहरा हुआ, पीछे वो भी नहीं देखता होगा, आगे भी नहीं, बस वहीं, जहाँ है। प्रेम विश्वास है, स्थिरता, और कुछ नहीं।  

आइये सुनें ये सुंदर गज़ल, जगजीत की आवाज़ में।

Thursday, December 17, 2009

मैं छोटे, बड़े सभी को सही सम्मान दूँगा

वो स्कूल के आफ़िस के सामने, अन्य बच्चों के साथ, फ़र्श पर बैठा अपनी मां के आने का इंतज़ार कर रहा था। मुझे उसकी आँखों से दो बूँद आँसू ढुलकते दिखाई दिये। मैं उसे उसकी कक्षा में नहीं पढ़ाती पर, उसे स्कूल में रोज़ देखती हूँ। सो , मैं उसके पास जाती हूँ और कहती हूँ, " क्या बात है बेटे? तुम ठीक हो न? तुम्हारी मां अभी आती ही होंगी"। 

वो मेरी तरफ़ नहीं देखता, और धीरे से कहता है, " मैं आपको देख कर मुस्कराया, आप वापस नहीं मुस्कराईं"। " ओह! आइ ऐम सो सारी बेटे, मैंने तो तुम्हें देखा ही नहीं।" 

फिर मैं उसके साथ एक छोटा सा खेल खेलती हूँ, " चलो दोनों साथ मुस्करायें..एक...दो...और ये तीन" दोनों साथ मुस्कराते हैं और मैं अपने पीछे खड़े उसकी अभी पहुँचे मां को भी मुस्कराता पाती हूँ। 

बच्चे कह पाते हैं...क्या हम?...

पिछले दिनों मेरे बचपन के स्कूल के एक सीनियर ने आर्कुट पर कुछ तस्वीरें लगाईं। वह साउथ अफ़्रीका में वह स्टेशन घूम आया जहाँ महात्मा गांधी को ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास कम्पार्ट्मेंट से उतार दिया गया था।  उस घटना ने उनकी ज़िंदगी बदल दी और उन्होंने दुनिया को बदलने का सोच लिया। अचानक ही फिर से जैसे उस काले, पतले, सीधे-साधे आदमी के लिये एक बार श्रद्धा उमड़ आई मेरे मन में। कितनों में होती है हिम्मत...?


पिछले साल, मैंने अपने स्कूल में बुलींग प्रिवेन्शन को लेकर काफ़ी काम किया था।  कई वर्कशाप में जाकर मैंने जाना कि मनोवैज्ञानिक या साइकोलॉजिकल बुलींग बहुत खतरनाक होती है, और बच्चों में, ख़ासकर लड़कियों में होती पाई जाती है। विशेषकर उनके साथ जो स्कूल में नये आते हैं।  उनको अनदेखा करना, अलग-थलग कर देना, बात न करना, मुँह फेर लेना आदि...और मैं सोचती थी, बड़ों की दुनिया कहाँ अलग है?

आज सुबह स्कूल में  ’आज का विचार’ पढ़ा गया, " मैं छोटे, बड़े सभी को सही सम्मान दूँगा।"

Wednesday, November 04, 2009

क्या आप सत्तर के दशक में पैदा हुये हैं?

क्या आप ७० के दशक में पैदा हुये हैं? या ऐसा कहें कि ८०-९० के दशक में बड़े हो रहे थे...स्कूल जा रहे थे, कालेज जा (नहीं जा, बदले में फ़िल्म देखने) रहे थे?

तब तो -

- फ़ैंटम, मैंड्रेक, बहादुर (वो घोड़े पर...) आपके ड्रीम हीरो थे। आप अगर लड़की हैं, तो "प्रेत का विवाह" वाली कॉमिक (वेताल) कई बार पढ़ चुकी थीं। इसके अलावा, लोट-पोट, चंदामामा, चंपक, नंदन, चाचा चौधरी और साबू, मधुमुस्कान आपके प्रिय पत्रिकाओं में से हुआ करती थीं, और पढ़ाकुओं के लिये कम्पिटीशन सक्सेस रिव्युह

-अमर चित्रकथा दोस्तों से बदल बदल कर पढ़ना और उसकी सिरीज़ जमा करना आपके लिये गर्व की बात होती थी।

- कैमलिन ज्यामिती बाक्स और फ़्लोरा पेन्सिल आपको बर्थडे पर मिले होंगे।

-छुट्टी पर जाने का मतलब दादा-दादी या नाना नानी जी से मिलने जाना होता था।

-आइसक्रीम का मतलब आरेन्ज स्टिक या वनीला का कोन हुआ करता था। वाडीलाल, दिनशा आदि कुछ नये नाम आने लगे थे आइसक्रीम की दुनिया में।

-आपकी फ़ैमिली कार फ़ियट (या अम्बैसैडर) थी।

-उस गाड़ी में पर्दे लगे होते थे, सफ़ेद नेट के बने हुये, शायद मां के हाथों सीये हुये।

-शायद एक छोटा सा पंखा भी लगा हो गाड़ी मॆं।

-आप सर्कस देखने एक न एक बार तो ज़रूर गये होंगे जहाँ, झकमक कपड़ों में लड़कियाँ करतब दिखाती थीं, बौने जोकर बेसर पैर की बातें कर हँसाते थे और किसी बैट जैसी वस्तु से एक दूसरे के पीछे मारते थे।

-अगर आपके घर टी.वी. था तो चित्रहार के समय घर पर भीड़ जमा होना कोई नई बात नहीं थी। रविवार को शाम को दूरदर्शन पर सिनेमा और दोपहर को रीजनल मूवी (सबटाइटल्स के साथ) आप बड़े शौक़ से देखते थे। कृषिदर्शन क्यों दिखाते हैं आपको कभी समझ नहीं आया क्योंकि वो वक़्त आपको पढ़ाई करने के लिये बैठना पड़ता था । रविवार को सुबह दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के वक़्त पूरे शहर में कर्फ़्यू लग जाता था।

-जे.बी रमन और सलमा सुलतान (बालों में गुलाब के फूल के साथ, बिना मुस्काये समाचार पढ़ते हुये) आपके घर के सदस्य बन बैठे थे। किसी नेता के देहांत हो जाने पर तीन दिन का शोक दूरदर्शन पर आपको बहुत पीड़ा देता था, जब सारे दिन बांसुरी और शास्त्रीय संगीत सुनना पड़ता था।

-इंदिरा गांधी का देहांत और राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन का टीवी पर उनकी अंतिम क्रिया पर दिखाया जाना, सीधा प्रसारण, घरों मॆं टीवी देखने वालों की भीड़, भूले नहीं होंगे आप।

-घर में मार्डर्न गजेट के नाम पर फ़्रिज, मिक्सी और टी.वी. हुआ करते थे।

-डिस्को दीवाने नाज़िया हसन के गानों के आप दीवाने थे।

-मां, पिताजी, स्कूल के टीचर से मार खाना कोई बड़ी बात नहीं थी।

-तस्वीरें खींचना/खिंचवाना बड़ी बात थी। ३६ फ़िल्मों वाले कैमेरा से या किसी स्टुडियो में जा कर परिवार सहित फ़ोटो खिंचवाई होगी आपने, जहाँ सभी सावधान की अवस्था में खड़े हों।

-थोड़े बड़े होने पर लड़कियाँ, मिल्स ऍन्ड बून्स पढ़ाई की किताबों के नीचे रख कर कभी तो पढ़ी होंगी।

-बिनाका/सिबाका गीत माला रेडियो पर सुनना....

यादें बहुत सी हैं...अभी बस इतना ही ...

(एक फ़ार्वर्डेड ईमेल से कई अंश लिये गये हैं, जिसने सचमुच पुराने दिन याद दिला दिये...)


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Monday, August 31, 2009

ई-स्वामी - बधाई


कुछ दोस्त, कुछ रिश्ते यूँ ही राह में चलते-चलते बन जाते हैं। ई-स्वामी से कुछ ऐसे ही मुलाक़ात हुई थी आनलाइन। और राह में चलते-चलते कब हम दोनों इतने अच्छे मित्र बन गये, पता नहीं चला। कुछ एक जैसा ही बैक-ग्राउंड (मध्य प्रदेश से), कुछ एक जैसी सोच तो कुछ उल्टी सोच, कुछ दोनों का बेबाक (उसका मुँहफ़ट होना, मेरा बेबाक होना :-P) होना, कुछ मन का मेल...

ब्लॉग वर्ल्ड में अनाम रहने वाला ई-स्वामी अभी कुछ महीने पहले हमसे मिला। :-) एक टिपिकल देवर की तरह मेरे किचन में खूब मीन-मेख निकाले, कहा, भाभी, चाय तक बनानी नहीं आती, पता नहीं दादा कैसे झेलते हैं आपको। सो-कॉल्ड सही चाय बनानी सिखाई, और दादा के साथ गाड़ी और बीयर की बातें ले कर व्यस्त रहा। बिचारी भाभी सीन से गुल...(थोड़ा-बहुत एक अच्छे देवर की तरह दादा की डाँट से बचाया भी, मेरे सेल-फ़ोन स्कूल में छोड़ आने की बात उन्हें न बता कर, और फिर हर दो मिनट में धमकी दे कर- "बता दूँ?")।

आज ये पोस्ट एक ख़ास बात ऐलान करने के लिये कर रही हूँ- ई-स्वामी को कल दूसरे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। परिवार वालों के बाद ये खबर सबसे पहले मुझे दी उसने (ऐसा कह्ता है वो, सच का पता नहीं)। बच्चे का नाम बच्चे के चाचा के छ: साल के बेटे ने विशिष्ट रखा है। मां और बच्चा दोनों स्वस्थ हैं और ई-स्वामी बहुत खु़श। तुम्हें बहुत-बहुत बधाई ई-स्वामी।

Monday, August 17, 2009

यादें- क्या बात थी कि जो भी सुना अनसुना हुआ

पुरानी कई यादों को संजो कर ले आई हूँ इस बार भारत से। १८-१९ साल की उम्र में आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित मेरी गाई ग़ज़लें पापा के पुराने टेप-रिकार्डर में मिली। साथ ही मिला एक पुराना पीला अख़बार। पापा ने कितने जतन से ये सब संभाल के रखा है।

उन ग़ज़लों में से एक ग़ज़ल यहाँ सहेज रही हूँ।



और साथ ही वो अखबार की क्लिप।

Friday, June 26, 2009

कुछ यूँ ही


पूरी छाँव किसे मिलती थी। आधी-आधी बाँट कर, कभी उँगली के सिरे से बाँध कर, कभी उछाल कर, लपक कर, खेलते थे उस छाँव से हम तीनों। कभी तो किसी के हिस्से आती ही थी धूप और कभी जो भूले से भी मुझे मिल जाती धूप, तो बढ़ आते थे उनके हिस्से के टुकड़े-टुकड़े छाँव, मेरे हिस्से की धूप को अपनाने । मैं इतराती, मुँह चिढ़ाती धूप को और फिर खुद धूप बन थिरकती। ऐसे ही धूप-छाँव के खेल में एक दिन अपना हिस्सा संग ले मैं चली आई थी बादलों की नगरी में। बादलों के शहज़ादे ने मुझे दी थी एक बड़ी सी छाँव। धूप की तो हिम्मत भी नहीं थी कि आ कर मेरे छाँव में छेद कर के झाँके। मगर फिर भी वो धूप-छाँव के खेल मुझे बहुत अज़ीज़ थे, अज़ीज़ हैं। बस कुछ दिन और...धूप बन थिरकूँगी फिर एक बार...

(मेरे अज़ीज़ भाइयों के लिये- एक अर्से बाद जिनसे फिर मुलाक़ात होगी)

Thursday, May 28, 2009

चूज़ों के जन्मने का जश्न

आज ६ चूजों ने जन्म लिया, मिस डान लोच की कक्षा में। बच्चे अतिउत्साहित थे। वे लगातार पिछले २१ दिन से हर अंडे को रोज़ ध्यान से देख रहे थे। हम भी सब जा-जाकर देख आते थे उन अंडों को। अभी कक्षा पहली के बच्चे लाइफ़-साइकल पढ़ रहे हैं,जिसके अंतर्गत बच्चों ने ये प्रोजेक्ट किया। इन्क्यूबेटर में ये अंडे २१ दिन तक रहे और जब ये चूज़े थोड़े बड़े हो जायेंगे तो इन्हें फ़ार्म में वापस दे दिया जायेगा, जहाँ से ये अंडे और इन्क्यूबेटर लाया गया है। फिर तो उन चूज़ों की नियति का पता है। वैसे बच्चों को बताया जाता है कि ये चू़ज़े अब वहाँ जा कर खेलेंगे, खुश रहेंगे, बड़े हो कर क्या होगा ये कोई पूछता नहीं न हम बताते हैं।







मिसेज़ बैटल की कक्षा पहली में एक पालतू गिनी पिग है। उसका नाम लूसी है और बच्चे बड़े प्यार से उसे खाना खिलाते हैं, देखभाल करते हैं। उसकी तस्वीर-



Thursday, May 21, 2009

बदलाव -बस यूँ ही

बदलाव ज़िंदगी का एक तरीका है। तरीका ख़ुद-ब-ख़ुद उलझ जाने का और उलझ कर फिर खू़बसूरती से सुलझ जाने का। हर उलझाव के साथ खुलते हैं कुछ गिरह और हर सुलझाव ले आता है एक सवाल। जवाब के इंतज़ार में एक लंबे ख़ामोश पल के बाद पीछे दरवाज़ा बंद होता है। और फिर खुलता है एक नियम और हम बंध जाते हैं उस नये नियम में।

हाँ, ये भी ज़िंदगी का एक तरीका है...

जगजीत सिंह की आवाज़ का जादू...

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जीवन क्या है, चलता फिरता एक खिलौना है
दो आँखों में एक से हँसना एक से रोना है

चलते चलते राह में यूँ ही रस्ता मुड़ जाता है
अनजाने में अनजाने से रिश्ता जुड़ जाता है
किसे पता है किस रस्ते में कब क्या होना है

बीत गया जो वो हर पल आगे क्यों चलता है
राख हुये अंगारे कब के फिर भी दिल जलता है
भूली बिसरी यादों को अश्कों से धोना है

जो जी चाहे वो मिल जाये कब ऐसा होता है
हर जीवन जीवन जीने का समझौता होता है
अब तक जो होता आया है वो ही होना है

रात अंधेरी भोर सुनहरी यही ज़माना है
हर चादर में सुख का ताना दुख का बाना है
आती सांस को पाना जाती साँस को खोना है

Sunday, March 22, 2009

आख़िरकार ४०१ पर


पिछले किन्हीं दो पोस्ट में (लिंक पर क्लिक कर के आप उन्हें पढ़ सकते हैं) मेरी हाइवे ड्राइविंग की गाथा लिख चुकी हूँ। अब इस बात को एक साल होने को आये और उसके बाद फिर मैंने कभी हाइवे पर ड्राइव करने का ख़तरा नहीं उठाया। ज़रूरत न पड़े तो क्या ज़रूरी है कि खुद को टेन्शन दी जाये। ख़ुद से ज़्यादा मेरे पतिदेव को...मगर आज....


आज बैंक के किसी काम से शहर से कोई ५० कि.मी. दूर (मिसिसागा नाम का सुंदर सा सबर्ब है) वहाँ जाना पड़ा। हम जहाँ रहते हैं वहाँ से ४०१ हाइवे ले कर जाना पड़ता है। कहते हैं कि ये यहाँ का सबसे बिज़ी हाइवे है। पिछली बार जब ४०४ पर पहली बार गाड़ी चलाई थी तो मेरे चाचा जी ने कहा था, " अब ४०४ भी कोई हाइवे है, ४०१ पर चला कर दिखाओ तो..."। तो ख़ैर, जब भी ये साथ होते हैं तो मैं कभी भी गाड़ी के स्टीयरिंग व्हील के सामने नहीं बैठती। क्योंकि ड्राइव तो मैं करती हूँ, पर स्ट्रेस्ड ये होते हैं। ये और इनकी गाड़ी...मैं बीच में आती ही नहीं। बाप रे! वैसे भी शामत आई है जो इनकी गाड़ी को मैं हाथ लगाऊँ।


तो हम पहुँचे बैंक। वहाँ पहुँच कर जब बैंक के आदमी ने इनसे इनका डेबिट कार्ड माँगा तो सब जेबों को अच्छी तरह से सर्च करने पर भी उनका वालेट उन्हें नहीं मिला। तो समझ आया कि हमारे साहब तो वालेट घर पर ही भूल आये हैं। यानि कि इतनी दूर ये बिना लाइसेंस के गाड़ी चला कर आये थे। तो ख़ैर, मेरे बैंक कार्ड से काम हुआ, मगर घर जाने के लिये तो अब...बिना लाइसेंस ड्राइव करना तो खै़र हो नहीं सकता था (एक बार तो इन्होंने कहा भी कि पुलिस पकड़ेगी तब न...मैं ही कर लेता हूँ ड्राइव, मगर ऐसा हुआ नहीं)... तो मुझे ही ड्राइव करना था।


तो मैंने आज हाइवे ४०१ पर गाड़ी चलाई। बड़े ही दुखी हो कर चाभी मुझे दी इन्होंने, मेरी सौत को मुझे हाथ लगाने दिया, और ५ हिदायतें दीं...और आखिरकार हम घर पहुँचे। ११०-१२० कि.मी./घंटे की गति से इनकी गाड़ी में...सच मज़ा ही आ गया।

अब सोच रही हूँ, मेरी छुटकी गाड़ी को छोड़ अक्सर इनकी गाड़ी को मैं ही चलाया करूँगी...अपनी मंशा बताई नहीं है अभी तो वैसे इन्हें...पर अंजाम पता है... :-)


Saturday, January 31, 2009

सोहेल राणा साहब के साथ


" ये स्वर मुझसे नहीं लगते ठीक से राणा साहब..."
"नहीं, स्वर यहाँ कुछ ऐसे लगाइए- म॑ ध नि सां नि ध म॑ म ग"
" जी...."
" जब मैं ख़ां साहब को ये ग़ज़ल बता रहा था...१९७८ में...तब..."

खु़द अपने नसीब पर यक़ीन कर पाना मुश्किल होता है कि सोहेल राणा साहब से मुझे ग़ज़ल गाने की तालीम लेने का अवसर मिल रहा है । उनका मुझे एक ही लाइन को पचास बार गवाना कि उनके कानों में वो बात नहीं आती जो वो सुनना चाहते हैं, वो छोटी छोटी बारीक़ियाँ, वो लफ़्ज़ों का गाते वक़्त सही उच्चारण, और फिर बीच बीच में उनका अपने पुराने दिनों में खो जाना और अपने क़िस्से बताना कि किस तरह ’आज जाने की ज़िद न करो’ उन्होंने सबसे पहले हबीब वाली मोहम्मद से गवाई थी, और बाद में फ़रीदा ख़ानम ने उसे गाई और वो मशहूर हुई...हर लम्हा मेरे लिये सीखने का होता है उनके साथ।

अभी जो ग़ज़ल सिखा रहे हैं वो मुझे, मेहंदी हसन साहब की आवाज़ में है ये कहीं, मगर मेरे पास नहीं वरना अपलोड कर देती, अभी सिर्फ़ ग़ज़ल पढ़ने का मज़ा लीजिये-

वो सुबह को आयें तो करूँ बातों में दोपहर
और चाहूँ कि दिन थोड़ा सा ढल जाये तो अच्छा

ढल जाये अगर दिन तो करूँ बातों में फिर शाम
और शाम से चाहूँ कि वो कल जाये तो अच्छा

हो जाये अगर कल तो कहूँ कल की तरह से
गर आज का दिन भी यूँ ही टल जाये तो अच्छा

अलक़िस्सा नहीं चाहता वो जायें यहाँ से
जी उसका यहीं गरचे बहल जाये तो अच्छा।

चलते चलते, सोहेल राणा साहब की मशहूर "आज जाने की ज़िद न करो" यू ट्यूब के सौजन्य से जनाब हबीब वाली की आवाज़ में सुनिये


Tuesday, January 06, 2009

ठंड की एक सुबह

धुँआ-धुँआ सी सुबह... ठिठुरता आसमां... बर्फ़ की शाल ओढ़ कर इधर से उधर भाग रही थी हवा। उस शाल का एक कोना किसी सांस को छू कर निकल जाता और एक लड़ाई छिड़ जाती। गीली धूप को अपनी पीठ पर लादे हुए, उसे सुखाने की कोशिश करता बड़ा सा दिन। मगर सिहर उठता बदन उसका हर सांय की आवाज़ के साथ। रहम की भीख माँगते सूखे तिनकों से टंगे पेड़," बस...और कितना? " कि तभी सन्नाटे को चीरता, किलकारी करता बड़ा सा हुजूम दौड़ता, भागता, हँसता खिलखिलाता मनहूसी को तोड़ता, शोर करता और कहता, "जीवन है यहां, उठो! ... यही तो जीवन है।"

Wednesday, December 31, 2008

नायगरा सर्दी में

"ह्म्म...तो आप शापिंग करने गये थे उस पार। कितने का सामन लिया?"

" ६० डालर सर"

"अच्छा? सिर्फ़ साठ डालर का सामान लेने?....सीमा के पार? कब आये थे?"

" दोपहर के बाद, कोई ३ बजे"

" तो ४ घंटे के लिये...ह्म्म...क्या क्या खरीदा?"

" बस कुछ कपड़े लत्ते, कुछ कस्मेटिक्स"

" हार्ड कोर शापर्स...मगर...अच्छा कोई और सामान, ड्यूटिफ़्री से?"

"नहीं सर"

" ह्म्म...अरे! और ये जी.पी.एस. ? (’बच के जाओगे कहाँ, ये पकड़ा’ टाइप्स लहज़े में) ये कब लिया?"

"ये तो पुराना है, कोई एक साल"

" अच्छा? रिसीट है?"

"नहीं, रिसीट कैसे होगी, पुराना है"

" कोई बात नहीं, आगे जा कर बाईं तरफ़ रुक जाओ, वहाँ चेकिंग होगी, एक अन्य आफ़िसर चेक करेगा"

"ठीक, सर"
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" आप लोग उतर आयें गाड़ी से, मैं चेक करूँगा"

"जी"

" जी.पी.एस में ट्रैवल हिस्ट्री दिखा सकते हैं?"
"हाँ, ये लीजिये...५१ घंटे की ड्राइव, ३१०० कि.मी. की दूरी तय"

"ह्म्म, पुराना है, ठीक है...और कुछ नहीं खरीदा?"

"नहीं (उफ़! )"

"ठीक है, जाइये"
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कल घूमते हुये हम नायग्रा की तरफ़ गये, (हमारे घर से कोई २ से २.५ घंटे) वहाँ से सूझा कि बार्डर के उस पार अच्छे शापिंग माल हैं, देख आते हैं। तो सीमा पार कर उन माल्स में गये । कुछ थोड़ी सी खरीदारी की और आते वक़्त सीमा पर हुई पूछताछ का ब्यौरा ऊपर। छ: डालर की ड्यूटी लगनी थी, उन्होंने नहीं ली।
नायग्रा सर्दी में बर्फ़ बन जाता है। सर्दी में नायग्रा की तस्वीरें-
बर्फ़ से जमी नायग्रा नदी
विश्व के मशहूर दर्शनीय स्थलों में से एक

बर्फ़ के जमने से नदी के बीच टापू पर पेड़ आइस स्कल्पचर से लगते हैं

Saturday, December 20, 2008

आज का दिन- यूँ ही ब्लागिंग और रब ने बना दी जोड़ी

कल की २० से.मी. गिरती बर्फ़ में घर वापस आ कर भगवान का फिर शुक्रिया अदा किया कि एक बार फिर सही सलामत घर पहुँच गए, ऐसे मौसम में। आज का दिन साफ़ सुथरा, सुंदर धूप, और कल का फ़ोरकास्ट है फिर १० से.मी. बर्फ़। यानि कि आज का दिन था घूमने फिरने का। क्रिसमस की छुट्टियाँ शुरु हो चुकी हैं। हर जगह जिंगल बेल्स सुनाई दे रहा है। ’व्हाइट क्रिसमस’ की चाह रखने वाले ख़ुशी मना रहे हैं।

आज का दिन बहुत अच्छा बीता। आज मैं पाकिस्तान के मशहूर कम्पोज़र सोहेल राणा साहब से मिली और जनवरी से वो मुझे गज़ल गाने की तालीम देंगे। ये बहुत ख़ुशी की बात है मेरे लिये।

मैं और वो घूमते हुये, आज अचानक ही प्लान बना लिया शाहरुख़ की नई फ़िल्म ’रब ने बना दी जोड़ी’ देखी जाये। हम दोनों के बीच का डील है कि हम दोनों उनकी पसंद की एक फ़िल्म देखेंगे तो फिर उसके बाद एक मेरी पसंद की फ़िल्म देखेंगे। अब उन्हें "जेम्स बांड" पसंद है और मुझे "हम दिल दे चुके सनम" टाइप्स। तो इस डील के चलते वो ’प्राइड ऐंड प्रीज्यूडि़स’ देख चुके हैं (बोर हो कर..बिचारे) और मैं ’कसीनो रायल’...(बाप रे!)। तो खै़र, आज हमने मेरी पसंद की मूवी देखी। लकिली, दोनों को अच्छी लगी ये फ़िल्म। मुझे अफ़ कोर्स उनसे ज़्यादा। इस फ़िल्म का रिव्यू काफ़ी लोग लिख चुके हैं, मैं अलग से नहीं लिखूँगी, पर इतना कहूँगी- एक अच्छी फ़िल्म, देखने लायक। ’हौले हौले’ गाना बहुत अच्छा लगता है मुझे और उस फ़िल्म में इस गीत के वक़्त मुझे तो ज़ोर ज़ोर से गाने और ताल के साथ साथ ताली बजाने का मन हुआ, पर यहाँ लोग इतने ज़्यादा सोबर हैं, कि सब शांति से पिकचर देखते रहे। तो ख़ैर, फ़ुल एन्टर्टेनमेंट, बहुत मज़ा आया देख कर इसे। ज़रूर देखें।

Thursday, December 04, 2008

ब्लागिंग और फ़ुर्सत

उस समय हम इस देश में नये नये आये थे। शुरुआती महीनों मे एक नई जगह बसने की स्ट्रगल होती है, उसी में बिज़ी रहे थे हम दोनों। बहुत दिन नहीं हो पाये थे, कोई छ: महीने बाद ही मैंने अपना घुटना तोड़ लिया था, बर्फ़ पर फ़िसल कर। पहली बार बर्फ़ देखने की चाह, अस्पताल से पूरी हुई थी, अभी भी याद है...सर्जरी के बाद, बिस्तर से बाहर मैं खिड़की से बर्फ़ देख रही थी...ओह! क्या दिन थे..सच।

तो ख़ैर, उन्हीं दिनों घर पर बैठे बैठे, दिन में कुछ करने को ख़ास होता नहीं था, जब मैंने कम्प्यूटर को अपना साथी बनाया था, हिन्दी तब यूनिकोड में उपलब्ध नहीं था। तो अंग्रेज़ी में कवितायें और लेख लिखे, ज्योतिष की चर्चा की आदि। फिर शुषा फ़ांट से परिचय हुआ। २००४ सितंबर में कुछ अच्छे दोस्त बने इंटर्नेट के ही थ्रू।
पूर्णिमा दी (पूर्णिमा वर्मन) से मुलाक़ात होने के बाद, उनके प्रोत्साहन ने मुझे लिखने को फिर मजबूर किया, हिन्दी में। मैं तो भूल ही चुकी थी कि कभी मैं लिखती थी। फिर रवि रतलामी, अनूप शुक्ल आदि के कहने पर ब्लाग शुरु किया। उस वक्त ब्लाग सिर्फ़ चंद लोग लिखते थे। देबाशीष, जीतू, अनूप शुक्ल, ई-स्वामी, रमन कौल, प्रत्यक्षा, अनूप भार्गव आदि। ये सब ब्लागिंग के जगत के दिग्गज हुआ करते थे। प्रोग्रामिंग आदि के महारथी। इनका हिन्दी ब्लागिंग को आगे बढ़ाने में बहुत बड़ा हाथ है। उस वक़्त छोटी सी ब्लागिंग की दुनिया, एक परिवार जैसा हो गया था। सभी से बातचीत होती थी, और सब अपने ही लगते थे। अच्छे लोग, पारिवारिक संबंध। सुनील दीपक के पोस्ट्स भी बहुत अच्छे होते थे ( अभी भी)। आशीष श्रीवास्तव ’खाली-पीली’ नामक ब्लाग चलाते थे। बहुत मज़ेदार पोस्ट्स होते थे उनके...तब कुँवारे थे... और तो और, आशीष की शादी भी रवि रतलामी के ही भांजी से हुई, ब्लागिंग के ज़रिये ही परिचय...अमेज़िंग...शादी के बाद क्या हुआ आशीष? ब्लागिंग बंद?

धीरे-धीरे अब ये परिवार बढ़ कर इतना बड़ा हो गया है कि विश्व समाने लगा है। ये बहुत खु़शी की बात है। हिन्दी का प्रचार बढ़ रहा है। विकीपीडिया पर भी हिन्दी के लेख बहुत बढ़े हैं।

आज ब्लाग पर अपनी प्रविष्टियाँ देख रही थी। ध्यान दिया कि पिछले साल मैंने बहुत कम लिखा...और २००५-२००६ में काफ़ी। पिछले दो-तीन महीने से फिर ख़ूब ज़्यादा, रोज़ ही प्राय:। तो समझ आया कि लिखना या कोई भी अपना रुचिकर काम तभी ज़्यादा करता है इंसान, जब वक़्त हो। २००५-२००६ में सारे साल घर पर थी, वैंक्यूवर में। घर सजाने ( औरतों का सबसे प्रिय काम) और कम्प्यूटर पर कुछ दोस्तों से बकबक करने के अलावा ख़ास कुछ नहीं किया। घर पर बोर होती रही और कोसती रही यहाँ के सिस्टम को जो कि हर प्रदेश में फिर से क्वालिफ़िकेशन लेने की बात करता है। मैं आन्टेरिओ में सर्टिफ़ाइड थी, ब्रिटिश कोलंबिया में नहीं। सो स्कूल में नौकरी नहीं मिल सकती थी। अब पछताती हूँ, क्यों उस वक़्त पूरे एक साल की छुट्टी को पूरी तरह एन्जाय नहीं किया, अब काश वो दिन वापस आयें...ख़ैर...उस वक़्त भी काफ़ी ब्लागिंग की। और ख़ूब जम कर ज्योतिष...नये नये सिद्धांत सीखे।

२००६ के आखिरी में टोरांटो स्कूल में नौकरी ले कर वापस आई। आकर पिछले साल ख़ुद को जमाने के लिये काफ़ी कोर्सेस करने पड़े...५ कोर्स किये एक साल में...नौकरी, कोर्स, घर-परिवार के बीच जो थोड़ा सा वक़्त मिलता, उसमें कभी-कभार लिखती रही, वो भी अनूप शुक्ल से डाँट खा-खा कर। फिर इस साल गर्मी की छुट्टियों में ख़ूब कविता-शविता हुई। इस साल मैंने पार्ट टाइम नौकरी लेने का फ़ैसला किया। पार्ट टाइम की वजह से अब स्कूल खुलने पर भी, घर जल्दी आना होता है और लिखना भी ख़ूब। ब्लागवाणी से इतने दूर रह कर ब्लाग पढ़ती ही नहीं थी, पर अब देखा कि लोग संगीत का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं, Divshare आदि का पता चला, तो संगीत बाँटने की भी इच्छा हुई। इस तरह पोस्टिंग्स बढ़ीं। ये भी समझ आया कि सीधा ताल्लुक़ है ब्लागिंग का फ़ुरसत से...
फ़ुरसतिया जी, कितनी फ़ुरसत है आपको अब समझ आया...:-) फिर एक कोर्स शुरु करना है कुछ दिनों में...फिर लिखना कम हो जाये शायद...पर हर चीज़ का वक़्त होता है और पीछे मुड़ कर देखो तो महसूस होता है, जो भी होता है हमेशा अच्छे के लिये ही होता है। लिखना एक अभिव्यक्ति है, एक्स्प्रेशन है और कई बार ज़रूरी भी, पर नशा किसी भी चीज़ का अच्छा नहीं होता। सामंजस्य ज़रूरी होता है हर चीज़ के लिये...हाँ भई, ब्लागिंग का भी तो नशा ही होता है...क्या आप सब को नहीं लगता?

Sunday, November 30, 2008

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं






बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं

मेरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जानो ईमां हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं

फ़िराक़ अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं

(कुछ और शेर इसी ग़ज़ल के)

खु़द अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं

हमारी हर नज़र तुझसे नई सौगंध खाती है
तो तेरी हर नज़र से हम नया पैग़ाम लेते हैं

--फ़िराक़ गोरखपुरी

(आवाज़ जगजीत-चित्रा)

Sunday, November 23, 2008

तरंग



एक तरंग
समंदर से, आकाश से, धरती से
बहुत गहरी बहुत फैली, बहुत ऊँची
सीमाहीन, अदृश्य, नि:शब्द,
विशाल ब्रह्मांड में
न चाहकर, न जानकर
जोड़ती है
किन्हीं दो साकार
पर अस्तित्वहीन को
चुपचाप 

अपनी सत्ता में कहीं।

Monday, November 10, 2008

ये आदमी और गाडि़याँ! उफ़!


" मानोशी, तुमसे बात करनी थी, ज़रा" ।
"हाँ कहिये"। "
मेरी प्रिन्सिपल मेरे पीठ पर हाथ रख कर बोली, " यार तुम गाड़ी बहुत तेज़ चलाती हो, ज़रा धीरे चलाया करो, मैंने देखा तुम्हें कल"।
" हाँ?...अच्छा" मैं सकुचाई।

रोज़ सुबह इरादा मेरा यही होता है कि जल्दी काम पर पहुँच जाऊँ। सुबह जल्दी उठ भी जाती हूँ रोज़, उन्हें चाय, नाश्ता दे कर, लंच पैक कर के, फिर सो जाती हूँ, आधे घंटे के लिये। ये नींद बड़ी बुरी चीज़ होती है, मुझे आती भी बहुत है, जाने क्यों। मुझे रिपोर्ट करनी होती है काम पर सुबह ८:४० पर, और मुझे लगते हैं १५-२० मिनट पहुँचने में घर से। मैं निकलती हूँ ठीक ८:३० बजे। अब जल्दी पहुँचना हो तो, क्या करे इंसान...तेज़ ही गाड़ी चलाये...सामने की रोड पर स्पीड लिमिट है, ६० कि.मी. प्रति घंटा, और मैं चलाती हूँ ८० पर और प्रार्थना करती रहती हूँ " भगवान मुझे आज पुलिस न पकड़े...भगवान प्लीज़...प्लीज़..." अब तक भगवान मेहरबान हैं। मेरी सुनते हैं।

वैसे तो ये भी मुझे टोकते हैं (टोकना तो पतियों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है) कि मैं तेज़ चलाती हूँ, देर से ब्रेक लगाती हूँ आदि आदि। आज तक, वो साथ रहें और मैं स्टीयरिंग व्हील पर हूँ, ये नहीं हुआ कभी...न होगा। अपनी गाड़ी को तो हाथ भी नहीं लगाने देते, दूर से भी। बैठने दे देते हैं यही बहुत है... और ५० हिदायतें, दरवाज़ा ज़ोर से मत पटको, कुछ खाओ नहीं वग़ैरा वग़ैरा....समझ नहीं आता, क्या शौक़ होता है गाडि़यों का इन लोगों को। मैं ग्रोशरी की ख़रीदारी कर रही होती हूँ, और ये किसी दुकान पर खिलौने मैच बाक्स गाड़ियाँ देख कर मुग्ध हो रहे होते हैं। बेड साइड टेबल पर आटो मार्ट की किताबों की दुकान खोल रखी है, हर बार दुकान से एक उठा लाते हैं। गाड़ी चलाते हुये रास्ते में कोई फ़रारी दिख गई तो उनके मुँह से निकलता है, " सलाम साब, आप को मुझे ओवर्टेक करने का पूरा अधिकार है" । हर गाड़ी की मेक, मोडेल, सब कुछ ज़ुबानी याद है, और अपने दोस्तों से घंटों इस पर बात कर सकते हैं ये।

उस दिन मेरी दोस्त, नीलू से बात हुई। उसका ३ साल का बेटा ’गाड़ी-गाड़ी’ चिल्ला रहा था पीछे। मैंने पूछा, " ये क्या कह रहा है?" नीलू के परिवार में वे खु़द ४ बहनें थीं, घर में कोई बेटा/लड़का नहीं था। उसे भी पहली बेटी ही हुई थी। उसने कहा," क्या बताऊँ, ये अजीब जीव आ गया है मेरे घर। सिर्फ़ गाड़ी, नीली, पीली, बस गाड़ी की ही बात करता है, हमारे लिये बड़ा नया अनुभव है"।

लड़कों के क़िस्से...सच! एक बहुत प्यारा देवर/दोस्त है मेरा। उस दिन मुझसे बात कर रहा था। जब कम उम्र थी, उतनी अच्छी गाड़ी ख़रीदने के पैसे नहीं थे, और अमेरिका नया नया आना हुआ था, तब की बात है। " भाभी, एक बी.एम.डब्ल्यू. को पार्किंग लाट में देखा। सोचा, ज़रा लात मार कर देखूँ, कहने को हो जायेगा, बी.एम.डब्ल्यू को लात मारी। और जैसे ही लात मारी, उसका अलार्म बजने लगा। जो भागा फिर वहाँ से..." मैं हँसने के सिवाय क्या कर सकती थी। पर सच, ऐसा क्या है गाड़ियों और लड़कों में रिश्ता समझ नहीं आता....शायद वही जो मेरा अपने घर से है, या घर सजाने, साफ़ रखने से...मेन आर फ़्राम मार्स ऐंड विमेन फ़्राम वीनस...शायद यही है बस....