इस साल बच्चों को पढ़ाते हुये, कई अनुभवों से गुज़रते हुए एक बड़ी सीख मिली- प्रोत्साहन में बला की शक्ति होती है। बच्चे को अगर कुछ समझ नहीं आ रहा तो वह उसकी गलती नहीं है। उसे क्यों डाँटा जाये, मेरी समझ से बाहर है। भारत में (अब शायद स्थित बदल गई हो )बच्चे के नंबर कम आने पर, या फ़ेल होने पर कभी उस तरह ध्यान नहीं दिया जाता था कि हो सकता है कि बच्चे में कोई कमी हो जैसे लर्निंग डिसबिलिटी या कुछ और। डाँट डपट कर, मार-मार कर पढ़ा कर उस बच्चे के दिमाग़ में ज्ञान भरने की कोशिश की जाती थी। बच्चे का मनोबल और गिरता था और बच्चे में जितनी भी काबिलियत होती थी, वह भी किसी काम नहीं आती थी।
मेरे क्लास में ७-८ साल की एक बच्ची है जो शर्मीली प्रकृति की है। बात कम करती है शर्मीली होने की वजह से कुछ समझ न आये तो खुद सवाल करने से भी हिचकिचाती है। उसके माता-पिता से बात करके भी यही समझ आया कि वह घर में भी कम बात करती है और बहुत धीरे बोलती है आदि। उसे कक्षा में कई बार समझाया कि वह सवाल किया करे, बिना झिझक पूछा करे आदि।
कुछ दिनों से मैंने गौर किया कि वह बच्ची सवाल पूछ रही है या कोई भी बात कर रही है तो कुछ चिल्ला कर। उसकी अपनी आवाज़ नहीं है यह उसकी, जैसे ज़बरदस्ती चिल्ला कर, गले पर बहुत ज़ोर डाल कर बात कर रही है। आज उसे स्कूल के बाद थोड़ी देर अकेले पढ़ाते समय मैंने उसके कंधे पर हाथ रख कर उससे पूछा, " बेटा, क्या बात है कि आज कल देख रही हूँ तुम कुछ चिल्ला कर, गले पर ज़ोर डाल कर बात कर रही हो। हो सकता है मैं गलत हूँ, या बताओ अगर मैं सही हूँ तो।" बच्ची ने पहले तो कुछ नहीं कहा। फिर हामी भरी। कहा - घर में सब कहते हैं कि मुझे ज़ोर से बोलना चाहिये। मैंने उससे पूछा, "तो क्या तुम ऐसा कर के खुश हो? क्या तुम्हें कम्फ़र्टेबल लग रहा है?" उसका जवाब था, "दरअसल नहीं"। मैने उसे समझाया, ":जिस चीज़ से तुम अपनी पहचान खो दो वह मत करो। अगर तुम धीरे बात करती हो तो ठीक है। यह कोई गलत नहीं। हाँ कक्षा में कोई प्रेसेन्टेशन है तो अलग बात है, मगर बात करने के लिये तुम्हें ज़ोर लगा कर, चिल्ला कर बात करने की ज़रूरत नहीं। मान लो मुझे कोई कहे कि आपके चलने का ढंग मुझे पसंद नहीं, बदल दीजिये, तो क्या मुझे बदल देना चाहिये?" बच्ची ने जवाब दिया, " नहीं" मैंने उससे पूछा, "क्यों? तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?" उसका जवाब था, "क्योंकि आप उससे आप नहीं रहेंगी और खुश भी नहीं रहेंगी।" "बस यही बात है। अगर घर में कोई कहे तो कह देना मेरी टीचर ने कहा है कि मुझे "मैं" रहना है। मुझे इस तरह बात करना अच्छा नहीं लगता।"
बच्ची के चेहरे पर एक खुशी की आभा थी। बच्चों को समझाना तो आसान होता है पर हम बड़े भी क्या ऐसा कर पाते हैं? सबको खुश करने के लिये अपने को कई बार न चाहते हुये भी तो बदलने की कोशिश करते हैं हम। हमारी पहचान ही तो हम हैं। फिर लोगों की इतनी परवाह क्यों होती है हमें। क्या इस सवाल का कोई उत्तर है?
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Thursday, May 17, 2012
Sunday, December 25, 2011
नया वर्ष २०१२- शुभकामनायें
"मिसेज़ सी, आई हैव गॉट अ प्रेसेन्ट फ़र यू फ़ॉर क्रिसमस"
"इट वॉसंट नेसेसरी, हन"
"बट आई ऑल्रेडी गॉट इट (रुँआसे स्वर में)"
"रीअली? आई ऍम सो वेरी एक्साइटेड, आई कांट वेट टु ओपेन इट, कॅन आई गेस व्हॉट इट इज़?"
और एक मुस्कान खिल गई उस बच्चे के चेहरे पर। क्रिसमस की छुट्टियों को अभी ५ दिन और थे मगर सोमवार से ही बच्चों से क्रिसमस के प्रेसेंट मिलने लगे थे। सब उत्साहित थे। शुरुआत में मैंने कह दिया कि यह ज़रूरी नहीं, तुम सब मुझे अच्छा काम कर के दिखाते हो वही मेरे लिये प्रेज़ेंट है, मगर जब देखा कि बच्चे दुखी हो जाते हैं मेरे इस भारी भरकम वाक्य से तो फिर मैंने अपने शब्द बदल दिये। अब हर बार कोई बच्चा मुझे बताता कि वह मेरे लिये क्रिसमस का तोहफ़ा खरीद रहा है या वह उसे आज गिफ़्ट रैप करेगा, तो मैं भी उसे बड़े ही उत्साहित हो कर कहती कि वाह! मैं कितनी खुश हूँ कि मुझे इतने तोहफ़े मिल रहे हैं। और बच्चे कितने खुश हो जाते।
कभी सोचती हूँ कि हम बड़े भी तो बच्चे ही होते हैं। हमारे दिये हुए किसी चीज़ को कोई खुश हो कर न ले तो हमें भी कितना दुख होता है। ’ना-ना’ करने के बजाय तारीफ़ कर के तोहफ़ा लेना क्या बेहतर नहीं?
दिवाली, ईद, क्रिसमस, क्वान्ज़ा और हनुका ये सारे त्यौहार एक दो महीने के अंदर ही पड़ते हैं। इस साल इन महीनों में मैंने भी बच्चों के साथ बहुत कुछ सीखा। हर त्यौहार के ऊपर हम सबने मिल कर विडियो देखे, किताबें पढ़ीं, और किसी ऐसे व्यक्ति को कक्षा में उस त्यौहार विशेष के बारे में कहने को आमंत्रित किया जो उस त्यौहार को मनाता है। दिवाली के बारे में मैंने ही बच्चों को बताया, ईद के लिये एक अभिभावक ने आकर बच्चों को समझाया और क्रिसमस के लिये एक क्रिसचन टीचर ने बताया। हनुका (यह jews का त्यौहार है और ८ दिन तक मनाया जाता है) के लिये कोई मिला नहीं मगर हम सबने मिल कर किताबें पढ़ीं और एक आर्ट प्रोजेक्ट किया (हनुका रीथ बनाया)। क्वान्ज़ा अफ़्रीकन अमेरीकन लोग २६ तारीख़ से ले कर ७ दिन तक मनाते हैं। इस त्यौहार के बारे में भी मैंने बच्चों को किताब पढ़ कर सुनाई और उनके रिवाज़ों को जाना। यह सब करने के बाद हमने इन त्यौहारों के बीच की समानतायें और पार्थक्य पर गवेषणा की। ७-८ साल के बच्चे अब इन त्यौहारों के बारे में विस्तार से जानते हैं और इन के बीच की समानतायें व भिन्नतायें बता सकते हैं। और समानता यह कि सभी त्यौहारों में किसी भगवान के दूत या अवतार का महत्व है। हर त्यौहार में रोशनी का महत्व है और घर सजाये जाते हैं, दीया या मोमबत्ती जलाई जाती है और सबसे ज़रूरी, अच्छाई की बुराई पर विजय का जश्न मनाया जाता है।
कल ही से क्रिसमस की छुट्टियाँ शुरु हुई हैं। बच्चों की "मेरी क्रिसमस " और " हैपी न्यू ईअर" के बीच दिन खत्म हुआ कल। बच्चों के इन आर्ट प्रोजेक्ट व और कुछ कामों को लगाया है स्कूल की दीवारों पर। हनुका रीथ कैसे बनाया जाये, इन्टरनेट से ही मिल गया। इंटरनेट तो वरदान है मेरे लिये। इनकी तस्वीरें नहीं ले पाई, पर छुट्टी के बाद इस पोस्ट को अपडेट करूँगी, तस्वीरों के साथ।
सभी को क्रिसमस व नये वर्ष २०१२ की शुभकामनायें।
Monday, October 31, 2011
आज हैलोवीन का त्यौहार था। भूतप्रेतों को याद करते इस त्यौहार के दिन स्कूल में बच्चे तरह-तरह के कपड़े पहन कर आये थे। छोटे-छोटे प्यार- प्यारे कूदते-फ़ाँदते बच्चे। कोई कद्दू बना था तो कोई छोटा सा भूत। कोई माइकल जैकसन तो कोई तितली या परी। और मैं उनकी टीचर ,चुड़ैल। सर पर चुड़ैल की टोपी पहन बच्चों का सुबह स्वागत करते हुये बच्चों की खिलखिल और उत्साह में मेरे अंदर भी एक लंबा दिन काटने का उत्साह भर जाता है रोज़। छोटे-छोटे बैग में कुछ खिलौने और कैंडी भर कर कक्षा के कोने कोने में छुपा रखे थे मैंने। हर बैग में बच्चों का नाम लिख दिया था। फिर बच्चों को उन बैग को ढूँढना था और उनका नाम मिला बैग उन्हें दिख जाये तो वह बैग उनका। ऐसे ही खेल-खेल में हुई पढाई आज।
छोटे बच्चों को पढ़ाते हुये उनसे काफ़ी कुछ सीखने को मिला। प्रामिस इज़ अ प्रामिस। कभी भी कोई वादा कर के न निभाऊँ तो बच्चे कैसे सीखंगे कि जो वादा किसी से किया कभी तो उसे निभाना है। चाहे एक किताब पढ़ने की बात हो या कोई पुरस्कार देने की, अगर वादा है तो उसे पूरा होना है। बच्चे भी तो जानते हैं कि हमारी टीचर ने कहा है तो ज़रूर होगा वह काम। चाहे वह खेल हो या पढ़ाई।
बच्चों की काबिलियत पर अचरज होता है मुझे। कितने ही काम हैं जो सोचती हूँ शायद बच्चे नहीं कर पायेंगे, पर बाद में हैरानी होती उनके काम को देख कर। आर्ट या कला बहुत पसंद करते हैं बच्चे। उनको अगर बता दिया जाये कि किस तरह से उनका काम सबसे अच्छा हो सकता है तो वह भी कोशिश करते हैं। हमेशा ही एक उदाहरण दिखाना ज़रूरी होता है। एक बुरा उदाहरण और एक अच्छा उदाहरण। जैसे कि किसी प्रश्न का बुरे उदाहरण का जवाब कैसा होगा और अच्छे उदाहरण का जवाब कैसा होगा। किसी अच्छे जवाब के लिये या अच्छे काम के लिये बच्चे को क्या करना होगा कि वह काम जो बच्चे ने किया वह अच्छा काम कहलाये।
एक वर्कशाप में एक इन्स्ट्रक्टर ने कहा- "ताली बजाइये, मैं आपको पास या फ़ेल बताऊँगी" मैंने तीन बार ताली बजाई। तो इन्स्ट्रक्टर ने कहा." आप फ़ेल हुई"। मुझे समझ नहीं आया। तब इन्स्ट्रक्टर ने कहा, " अच्छा अब मैं आपको बताती हूँ कि मैं आपके ताली बजाने को कैसे जाँच रही हूँ। मुझे ताली एक rhythm में चाहिये, १२१२३, १२१२३, १२१२३...इस तरह या कोई और ‘पैटर्न’ । इसके अलावा उस पैटर्न को ३ बार दोहराने पर ही आपको नंबर मिलेंगे। तो अब बजाइये " । ऐसे ताली बजाने पर मुझे पास कर दिया गया। इन्स्ट्रक्टर ने बताया, बच्चे में क्षमता होती है मगर ज़रूरी है कि बच्चा जाने कि उसे करना क्या है, कैसे जवाब लिखेगा तो उसे अच्छे नंबर मिलेंगे।
मेरे बच्चों के काम के कुछ सैम्पल के फोटो निकाले थे। बच्चों का काम प्रदर्शित करना भी कितना ज़रूरी है। बच्चों का इस तरह का प्रोत्साहन उन्हें मदद करता है और अच्छा कर दिखाने का।
Sunday, October 09, 2011
प्रोत्साहन बहुत ज़रूरी है
कई छोटी-छोटी बातें होती ही रहती हैं। कल रीसेस के समय दो बच्चियाँ मेरे पास आईं, " आपके लिये हमने एक केक बनाया है...चॉकोलेट आइसिंग वाला"। मैंने कहा अच्छा? वो कैसे? तो पता चला कि रीसेस में उन्होंने खेलते हुये मिट्टी और पत्थर से मेरे लिये एक केक बनाया था। तो वो चाहतीं थी कि मैं उस केक को काटूँ। तो भई हम ने भी उस केक को काटा...कहा, कितना सुंदर है...आदि :) बच्चियों की चेहरे की खुशी देखते बनती थी।
सराहना बच्चों के लिये बहुत बड़ा प्रोत्साहन का काम करती है। प्रोत्साहन भी दो तरह के होते हैं- एक प्रोत्साहन वह कि बच्चे किसी चीज़ की आशा में अपना काम करें। यह अच्छी बात है मगर दूसरा प्रोत्साहन वह जो कि जो अन्दरुनी परिवर्तन लाये। बच्चा खुद अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर उस काम को करे, किसी प्राइज़ की आशा में नहीं। सराहना करते वक़्त सिर्फ़ इतना कह देना कि ’वाह बहुत अच्छा जवाब दिया’ और एक "गुड" लिख देना काफ़ी नहीं होता। साथ में ये भी बताया जाये कि क्या अच्छा था जवाब में। इसके अलावा भी जवाब में और क्या होना चाहिये था कि जवाब और अच्छा होता। कक्षा में गलत जवाब के लिये कभी भी सज़ा नहीं दी जानी चाहिये। सज़ा भला क्यों? कि उसे जवाब नहीं आया? या उसका ध्यान नहीं था पढ़ाई में। अगर बच्चे को नहीं आता कोई जवाब तो मौका दिया जाये कि वो अपने साथी के साथ मिल कर जवाब तलाशे और फिर खुद इन्जडिपेंडेट्ली जवाब दे। इस तरह बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ता है। सज़ा ( वह भी ऐसी जिससे बच्चा कुछ सीखे) सिर्फ़ व्यवहार या अन्य वाजिब वजह से दी जानी चाहिये। जैसे मेरी कक्षा में बच्चे कोई काम करना भूल जायें (जैसे रीडिंग लॉग या स्कूल डायरी न साइन करवाई हो अनुभावकों से) तो ज़रूर सज़ा मिलती है उन्हें कि वो अपना काम याद रखें अगले दिन के लिये। उन्हें अपने मूल्यवान रीसेस के आधे घंटे में से २ मिनट देने होते हैं यानि सभी मित्रगण खेलने गये पर वो दो मिनट बाद जायेंगे। और जो बच्चे यह सब साइन करवा के लायें, उन्हें एक स्टिकर मिलेगा और ३० स्टिकर इकट्ठा कर लें वे तो एक प्राइज़। हाँ होमवर्क न करे कोई, तो रीसेस में मेरे साथ बैठ कर करना होगा होमवर्क...! प्राय: सभी बच्चे अपना काम करते हैं इस तरह।
कल एक बच्ची का जन्मदिन था मेरी कक्षा में। मेरे पास एक बक्सा है, छोटा सा कार्ड्बोर्ड का। बच्चे जानते हैं कि टीचर का यह ट्रेशर बॉक्स किसी के जन्मदिन पर खुलता है या टीचर बहुत खुश हो किसी के व्यवहार से तो ही। तो उस वक़्त उस बच्चे को उस ट्रेशर बॉक्स से आँख बंद कर के कोई भी चीज़ चुनने का मौका मिलता है। वह एक छोटी सी किता ब भी हो सकती है, कोई पेन या कोई खिलौना भी। बच्चे नहीं जानते कि उस बक्से के अंदर क्या है। देखा जाये तो यह सब बाह्य प्रोत्साहन हैं (extrinsic motivation) लेकिन कई बातों के लिये बहुत कारगर। बच्चे द्वारा किये गए किसी भी अच्छे काम की सराहना और यह बताना कि वो काम क्यों अच्छा था, इसके क्या अच्छे फल हुये अन्दरुनी प्रोत्साहन का उदाहरण है। उसी को नियम बना लेना बच्चों की आदत में ढल जाता है फिर। पूरे जीवन के लिये एक अच्छी शिक्षा।
फिर अगले सप्ताह की शुरुआत होगी। बच्चों की खिलखिलाहट सुनने को मिलेगी और उनके सप्ताहांत के अनुभव सुनने को। मैं भी उन्हें बताने को उत्सुक हूँ कि इस सप्ताहांत मेरी पिट्स्बर्ग की यात्रा, रंगीन पेड़ों को देखते हुये कैसी रही...। फिर फ़ॉल कलर्स पर कुछ चित्र बनाने का आर्ट प्रोजेक्ट उसी से संबंधित...
Sunday, December 19, 2010
बच्चे मन के सच्चे
स्कूल में पढ़ाते हुये कितने ही अनुभव होते रहते हैं। कुछ खट्टे, कुछ मीठे...कई छोटी-छोटी घटनायें होती रहती हैं, मगर ज़्यादातर ही, ये घटनायें मानसपटल के किसी कोने में कुछ दिनों के लिये कैद होती हैं और फिर धीरे-धीरे धूमिल। बच्चों की बातें, अक्सर ही मेरे चेहरे पर एक मुस्कान बिखेर जाती है।
कल क्रिसमस की छुट्टियों के पहले आखिरी दिन था स्कूल का। पढ़ाई कम, गिफ़्ट-एक्सचेंज और खेल ज़्यादा। सभी बहुत खुश थे, बच्चे, टीचर, सभी...माहौल छुट्टियों का, क्रिसमस का...
रीसेस के बाद, बच्चे कक्षा में आकर बैठने लगे थे। सबके कक्षा में आने का इंतज़ार कर रही थी मैं कि एक बच्ची आ कर उदास चेहरे से अपनी सीट पर अनमनी हो बैठी। कक्षा तीसरी की वह बच्ची, बहुत होशियार और मिलनसार है। मैं उसके पास गई और पूछा-
"क्या हुआ बेटा? आप इतनी उदास क्यों बैठी हैं? "
"कुछ नहीं..."
"अच्छा, अभी बाहर रीसेस में कुछ हुआ? किसी सहेली या दोस्त से अनबन हो गई? क्या बात है?"
"नहीं कुछ नहीं... "
"अच्छा जब तक तुम अपनी भावनाओं के बारे में बताओगी नहीं कैसे पता चलेगा? इसलिये अपने दिल की बात कह देना सबसे अच्छा होता है। क्या हुआ है?"
"वो...वो...जेनेट है न, वो रिचर्ड को, वो जो कक्षा दूसरी में है...उसे पसंद करती है। तो क्रिसमस के लिये रिचर्ड ने जेनेट को फूल और ज्वूलरी दी है। तो जेनेट उसी के साथ खेल रही है। मेरे साथ नहीं खेल रही।"
एक बार मन ही मन हँस पड़ी मैं। कक्षा दूसरी का ७ साल का बच्चे का कक्षा तीसरी की ८ साल की बच्ची को पसंद करना और इस बच्ची का बहुत ही सीरियसली इस वाकये का कहना और फिर उसे कोई ऐसा तोहफ़ा न मिल पाने का गम...मैं ने अपनी मुस्कान छुपा कर उतने ही गंभीरता से कहा,
"अच्छा, तो ये बात है। जेनेट तो तुम्हारी सबसे अच्छी दोस्त है, तुम दोनों ही एक क्लास में हो तो उसे बताओ कि तुम भी उसके साथ खेलना चाहती हो, और रिचर्ड भी तो तुम्हारा दोस्त है, तीनों साथ-साथ खेलो।"
"पर वो नहीं खेलते मेरे साथ अब..."
"अच्छा तो ऐसा करो, उन्हें बताओ कि इस से तुम्हारी भावनायें आहत होती हैं। और फिर उन्हें भी थोड़ा खेलने दो, तुम्हारे और भी कितने अच्छे दोस्त हैं, उनके साथ भी खेलो..है न?
"ह्म्म्म...."
बच्चे आहत होते हैं तो परिष्कार मन से कह देते हैं। और हम...अपने अहम में, और भी जाने कितनी बातें सोच कर कह नहीं पाते...और क्या सब समझ ही पाते हैं?
कल क्रिसमस की छुट्टियों के पहले आखिरी दिन था स्कूल का। पढ़ाई कम, गिफ़्ट-एक्सचेंज और खेल ज़्यादा। सभी बहुत खुश थे, बच्चे, टीचर, सभी...माहौल छुट्टियों का, क्रिसमस का...
रीसेस के बाद, बच्चे कक्षा में आकर बैठने लगे थे। सबके कक्षा में आने का इंतज़ार कर रही थी मैं कि एक बच्ची आ कर उदास चेहरे से अपनी सीट पर अनमनी हो बैठी। कक्षा तीसरी की वह बच्ची, बहुत होशियार और मिलनसार है। मैं उसके पास गई और पूछा-
"क्या हुआ बेटा? आप इतनी उदास क्यों बैठी हैं? "
"कुछ नहीं..."
"अच्छा, अभी बाहर रीसेस में कुछ हुआ? किसी सहेली या दोस्त से अनबन हो गई? क्या बात है?"
"नहीं कुछ नहीं... "
"अच्छा जब तक तुम अपनी भावनाओं के बारे में बताओगी नहीं कैसे पता चलेगा? इसलिये अपने दिल की बात कह देना सबसे अच्छा होता है। क्या हुआ है?"
"वो...वो...जेनेट है न, वो रिचर्ड को, वो जो कक्षा दूसरी में है...उसे पसंद करती है। तो क्रिसमस के लिये रिचर्ड ने जेनेट को फूल और ज्वूलरी दी है। तो जेनेट उसी के साथ खेल रही है। मेरे साथ नहीं खेल रही।"
एक बार मन ही मन हँस पड़ी मैं। कक्षा दूसरी का ७ साल का बच्चे का कक्षा तीसरी की ८ साल की बच्ची को पसंद करना और इस बच्ची का बहुत ही सीरियसली इस वाकये का कहना और फिर उसे कोई ऐसा तोहफ़ा न मिल पाने का गम...मैं ने अपनी मुस्कान छुपा कर उतने ही गंभीरता से कहा,
"अच्छा, तो ये बात है। जेनेट तो तुम्हारी सबसे अच्छी दोस्त है, तुम दोनों ही एक क्लास में हो तो उसे बताओ कि तुम भी उसके साथ खेलना चाहती हो, और रिचर्ड भी तो तुम्हारा दोस्त है, तीनों साथ-साथ खेलो।"
"पर वो नहीं खेलते मेरे साथ अब..."
"अच्छा तो ऐसा करो, उन्हें बताओ कि इस से तुम्हारी भावनायें आहत होती हैं। और फिर उन्हें भी थोड़ा खेलने दो, तुम्हारे और भी कितने अच्छे दोस्त हैं, उनके साथ भी खेलो..है न?
"ह्म्म्म...."
बच्चे आहत होते हैं तो परिष्कार मन से कह देते हैं। और हम...अपने अहम में, और भी जाने कितनी बातें सोच कर कह नहीं पाते...और क्या सब समझ ही पाते हैं?
Thursday, December 17, 2009
मैं छोटे, बड़े सभी को सही सम्मान दूँगा
वो स्कूल के आफ़िस के सामने, अन्य बच्चों के साथ, फ़र्श पर बैठा अपनी मां के आने का इंतज़ार कर रहा था। मुझे उसकी आँखों से दो बूँद आँसू ढुलकते दिखाई दिये। मैं उसे उसकी कक्षा में नहीं पढ़ाती पर, उसे स्कूल में रोज़ देखती हूँ। सो , मैं उसके पास जाती हूँ और कहती हूँ, " क्या बात है बेटे? तुम ठीक हो न? तुम्हारी मां अभी आती ही होंगी"।
वो मेरी तरफ़ नहीं देखता, और धीरे से कहता है, " मैं आपको देख कर मुस्कराया, आप वापस नहीं मुस्कराईं"। " ओह! आइ ऐम सो सारी बेटे, मैंने तो तुम्हें देखा ही नहीं।"
फिर मैं उसके साथ एक छोटा सा खेल खेलती हूँ, " चलो दोनों साथ मुस्करायें..एक...दो...और ये तीन" दोनों साथ मुस्कराते हैं और मैं अपने पीछे खड़े उसकी अभी पहुँचे मां को भी मुस्कराता पाती हूँ।
बच्चे कह पाते हैं...क्या हम?...
पिछले दिनों मेरे बचपन के स्कूल के एक सीनियर ने आर्कुट पर कुछ तस्वीरें लगाईं। वह साउथ अफ़्रीका में वह स्टेशन घूम आया जहाँ महात्मा गांधी को ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास कम्पार्ट्मेंट से उतार दिया गया था। उस घटना ने उनकी ज़िंदगी बदल दी और उन्होंने दुनिया को बदलने का सोच लिया। अचानक ही फिर से जैसे उस काले, पतले, सीधे-साधे आदमी के लिये एक बार श्रद्धा उमड़ आई मेरे मन में। कितनों में होती है हिम्मत...?
पिछले साल, मैंने अपने स्कूल में बुलींग प्रिवेन्शन को लेकर काफ़ी काम किया था। कई वर्कशाप में जाकर मैंने जाना कि मनोवैज्ञानिक या साइकोलॉजिकल बुलींग बहुत खतरनाक होती है, और बच्चों में, ख़ासकर लड़कियों में होती पाई जाती है। विशेषकर उनके साथ जो स्कूल में नये आते हैं। उनको अनदेखा करना, अलग-थलग कर देना, बात न करना, मुँह फेर लेना आदि...और मैं सोचती थी, बड़ों की दुनिया कहाँ अलग है?
आज सुबह स्कूल में ’आज का विचार’ पढ़ा गया, " मैं छोटे, बड़े सभी को सही सम्मान दूँगा।"
वो मेरी तरफ़ नहीं देखता, और धीरे से कहता है, " मैं आपको देख कर मुस्कराया, आप वापस नहीं मुस्कराईं"। " ओह! आइ ऐम सो सारी बेटे, मैंने तो तुम्हें देखा ही नहीं।"
फिर मैं उसके साथ एक छोटा सा खेल खेलती हूँ, " चलो दोनों साथ मुस्करायें..एक...दो...और ये तीन" दोनों साथ मुस्कराते हैं और मैं अपने पीछे खड़े उसकी अभी पहुँचे मां को भी मुस्कराता पाती हूँ।
बच्चे कह पाते हैं...क्या हम?...
पिछले दिनों मेरे बचपन के स्कूल के एक सीनियर ने आर्कुट पर कुछ तस्वीरें लगाईं। वह साउथ अफ़्रीका में वह स्टेशन घूम आया जहाँ महात्मा गांधी को ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास कम्पार्ट्मेंट से उतार दिया गया था। उस घटना ने उनकी ज़िंदगी बदल दी और उन्होंने दुनिया को बदलने का सोच लिया। अचानक ही फिर से जैसे उस काले, पतले, सीधे-साधे आदमी के लिये एक बार श्रद्धा उमड़ आई मेरे मन में। कितनों में होती है हिम्मत...?
पिछले साल, मैंने अपने स्कूल में बुलींग प्रिवेन्शन को लेकर काफ़ी काम किया था। कई वर्कशाप में जाकर मैंने जाना कि मनोवैज्ञानिक या साइकोलॉजिकल बुलींग बहुत खतरनाक होती है, और बच्चों में, ख़ासकर लड़कियों में होती पाई जाती है। विशेषकर उनके साथ जो स्कूल में नये आते हैं। उनको अनदेखा करना, अलग-थलग कर देना, बात न करना, मुँह फेर लेना आदि...और मैं सोचती थी, बड़ों की दुनिया कहाँ अलग है?
आज सुबह स्कूल में ’आज का विचार’ पढ़ा गया, " मैं छोटे, बड़े सभी को सही सम्मान दूँगा।"
Tuesday, December 15, 2009
आज सारा दिन जिंजर-ब्रेड आदमी को ढूँढते हुये
छुट्टियों के आने की तैयारी हो रही है स्कूलों में। किसी कक्षा में जिंजर-ब्रेड मेन बन रहे हैं तो किसी कक्षा में हनुका के लिये लैटके बन रहे हैं। स्कूल के शीत- उत्सव (विन्टर कन्सर्ट) में प्यारे- प्यारे, छोटे-छोटे बच्चों को अपने छोटे-छोटे हाथों को नचा-नचा कर गाने के साथ ऐक्शन करते हुये स्टेज पर देख कर मन अनायास ही खुश हो जाता है।
आज मेरा दिन इन ३-४ साल के बच्चों के साथ जिंजर-ब्रेड मैन को ढूँढते हुये निकला। बड़ी मेहनत से क्लास में सब ने टीचर की मदद से इन जिंजर-ब्रेड मैन कुकीज़ को बनाया और टीचर जा कर स्कूल के किचन में इन्हें अवन में रख आई। मगर जैसे ही कुछ बच्चों के साथ वो उन्हें लेने पहुँची, जिंजर-ब्रेड मेन तो वहाँ थे ही नहीं। सब के सब भाग चुके थे अवन से। तो फिर हम सब निकले उनकी खोज करने।
पहले किचन में एक नोट मिला, जिसमें लिखा हुआ था- आप मुझे केयर टेकर (स्कूल की सफ़ाई आदि का ध्यान रखने वाला स्टाफ़) के ऑफ़िस में ढूँढिये। वहाँ जब बच्चे टीचर के साथ गये तो उन्हें एक और नोट मिला कि वो सब तो भाग कर कम्प्यूटर लैब गये हैं। बच्चे वहाँ ढूँढ आये और इस तरह एक के बाद एक कई कक्षाओं में, प्रिंसिपल के आफ़िस में और स्कूल में हर जगह ढूँढ आने के बाद वह उन्हें मिले ...तो लाइब्ररी में। फिर सब ने उन्हें लाकर, उन पर कक्षा में आइसिंग कर उन्हें खा लिया।
बच्चे कितने भोले होते हैं। सब के सब उन जिन्जर ब्रेड कुकीज़ को इस तरह ढूँढ रहे थे जैसे सच वो भाग कर कहीं छुप गये हैं। उनके मिल जाने पर बच्चों की खुशी के एक्सप्रेशन को शब्दों में बयान करना मुमकिन नहीं।
इन नन्हें फूलों के कि़स्सों से अब लगता है मेरा ब्लाग सजता ही रहेगा।
आज मेरा दिन इन ३-४ साल के बच्चों के साथ जिंजर-ब्रेड मैन को ढूँढते हुये निकला। बड़ी मेहनत से क्लास में सब ने टीचर की मदद से इन जिंजर-ब्रेड मैन कुकीज़ को बनाया और टीचर जा कर स्कूल के किचन में इन्हें अवन में रख आई। मगर जैसे ही कुछ बच्चों के साथ वो उन्हें लेने पहुँची, जिंजर-ब्रेड मेन तो वहाँ थे ही नहीं। सब के सब भाग चुके थे अवन से। तो फिर हम सब निकले उनकी खोज करने।
पहले किचन में एक नोट मिला, जिसमें लिखा हुआ था- आप मुझे केयर टेकर (स्कूल की सफ़ाई आदि का ध्यान रखने वाला स्टाफ़) के ऑफ़िस में ढूँढिये। वहाँ जब बच्चे टीचर के साथ गये तो उन्हें एक और नोट मिला कि वो सब तो भाग कर कम्प्यूटर लैब गये हैं। बच्चे वहाँ ढूँढ आये और इस तरह एक के बाद एक कई कक्षाओं में, प्रिंसिपल के आफ़िस में और स्कूल में हर जगह ढूँढ आने के बाद वह उन्हें मिले ...तो लाइब्ररी में। फिर सब ने उन्हें लाकर, उन पर कक्षा में आइसिंग कर उन्हें खा लिया।
बच्चे कितने भोले होते हैं। सब के सब उन जिन्जर ब्रेड कुकीज़ को इस तरह ढूँढ रहे थे जैसे सच वो भाग कर कहीं छुप गये हैं। उनके मिल जाने पर बच्चों की खुशी के एक्सप्रेशन को शब्दों में बयान करना मुमकिन नहीं।
इन नन्हें फूलों के कि़स्सों से अब लगता है मेरा ब्लाग सजता ही रहेगा।
Friday, November 20, 2009
नन्हें फूल- रोज़ ही एक नया मज़ेदार कि़स्सा
"अब के इस मौसम में नन्हें
फूलों से महकी गलियाँ हैं"
इस शेर को जब लिखा था तो वो प्यारे-प्यारे, छोटे-छोटे बच्चे थे दिमाग़ में, जिन्हें पढ़ाने का मौक़ा मिला है इस साल। कक्षा किंडर्गार्टन से कक्षा दूसरी तक के बच्चे, ४ - ७ साल तक के।
शुरुआत में बड़ी परेशानी होती थी। मैं घबराई हुई सी इन कक्षाओं में जाती थी। इतने छोटे बच्चों को पढ़ाने का कोई अनुभव नहीं था मुझे। मगर अब कोई २-३ महीने बाद, हर दिन एक खुशगवार दिन होता है और हर दिन के नये कि़स्सों को घर आकर याद कर के चेहरे पर अपने आप मुस्कराहट आ जाती है। रोज़ एक नया मज़ेदार क़िस्सा।
अभी कल की ही बात है। किंडरगार्टन के बच्चों को स्कूल में ही, लाइब्ररी ले कर जाना था। उनकी कक्षा से दूर, सीढ़ियों से ऊपर लाइब्ररी में ले जाना मतलब, पहले ही हिदायतें दोहरानी होती हैं-
"हम लाइन में कैसे चलते है?"
" मुँह पर उँगली रख कर...."
"क्या हम लाइन में चलते हुए अपने दोस्त से बात करते हैं?
"न-हीं--" (-कोरस में सभी-)
"जब हम सीढ़ी चढ़ते हैं तो क्या ज़रूरी है?"
"सीढ़ी की रेलिंग पकड़ना"
आदि आदि...
इस तरह से उनको (मैं बच्चों की लाइन की तरफ़ मुँह किये हुये, अपनी उँगली अपने होठों पर रखे हुये, धीरे-धीरे क़दम दर क़दम पीछे की ओर चलते हुये) लाइब्ररी तक ले कर जाती हूँ। यहाँ बच्चे अपनी पसंद की किताब लेते हैं और एक बेंच पर बैठ कर सब बच्चों के किताब ले लेने तक प्रतीक्षा करते हैं।
कल देखा, बेंच पर बैठी, ये छोटी सी बच्ची, चार-साढ़े चार साल, की खूब खी-खी कर के हँस रही है। मैंने पूछा कि क्या हुआ है? पास ही बैठी दूसरी बच्ची ने बताया, "मिसेज़ चटर्जी, फ़लाना इज़ टेलिंग दैट दे आर किसिंग" । मुझे हँसी आई, और मैंने कहा, "व्हाट इज़ इट हनी? " तो उस बच्ची ने अपनी किताब दिखाई, परी कथा थम्बलीना की कहानी में, आखिरी पन्ने पर राजकुमार और राजकुमारी पास-पास खड़े थे। वो कहने लगी, "दे आर किसिंग" । मैंने कहा, :" नो दे आर नाट..., दे आर स्टैंडिंग"। बच्ची ने थोड़े ध्यान से उस तस्वीर को फिर देखा और मुझे समझाते हुए कहा," येस, बट दे आर गोंइंग टु किस आफ़्टर" - (बस मन में यही कह पाई- जी अच्छा दादी अम्मा)
एक बच्चा है कक्षा पहली में, उसे मैंने कारीडर में चलते हुये नहीं देखा है कभी। वो अपने जूतों से लगातार फिसलते हुए ही चलता है। और फिर ब्रेक लगाते हुये, गिरते हुये, और फिर फ़िसलते हुये...हम टीचर भी अपना काम करते हैं, उसे रोज़ समझाते हैं, और वापस जाकर फिर चल कर आने को कहते हैं...आदि आदि, न वो सुधरा है अब तक, न हम :-)
सबसे अच्छा लगता है जब ये बच्चे खिल-खिल कर के हँसते हैं। छोटी-छोटी बातें इनको हँसाने के लिये काफ़ी होती हैं। कल एक खेल खिलवा रही थी बच्चों से। सभी एक गोलाकार में बैठे। एक बच्चे को खड़े होकर सबसे पहले अपनी उँगली को पेन्सिल मान कर हवा में अपना नाम लिखना था। फिर अपने सिर को पेन्सिल मान कर, फिर अपने पेट को , कुहनी को, आदि आदि...उनकी निश्छल हँसी देखते बनती थी।
रोज़ के कई कि़स्से...जाने कितने, इन दो महीनों में ही...जो सालों से इस उम्र के बच्चों को पढ़ा रहे हैं, उनके पास तो किस्सों का ख़ज़ाना होगा, इसमें भला क्या संदेह है...
फूलों से महकी गलियाँ हैं"
इस शेर को जब लिखा था तो वो प्यारे-प्यारे, छोटे-छोटे बच्चे थे दिमाग़ में, जिन्हें पढ़ाने का मौक़ा मिला है इस साल। कक्षा किंडर्गार्टन से कक्षा दूसरी तक के बच्चे, ४ - ७ साल तक के।
शुरुआत में बड़ी परेशानी होती थी। मैं घबराई हुई सी इन कक्षाओं में जाती थी। इतने छोटे बच्चों को पढ़ाने का कोई अनुभव नहीं था मुझे। मगर अब कोई २-३ महीने बाद, हर दिन एक खुशगवार दिन होता है और हर दिन के नये कि़स्सों को घर आकर याद कर के चेहरे पर अपने आप मुस्कराहट आ जाती है। रोज़ एक नया मज़ेदार क़िस्सा।
अभी कल की ही बात है। किंडरगार्टन के बच्चों को स्कूल में ही, लाइब्ररी ले कर जाना था। उनकी कक्षा से दूर, सीढ़ियों से ऊपर लाइब्ररी में ले जाना मतलब, पहले ही हिदायतें दोहरानी होती हैं-
"हम लाइन में कैसे चलते है?"
" मुँह पर उँगली रख कर...."
"क्या हम लाइन में चलते हुए अपने दोस्त से बात करते हैं?
"न-हीं--" (-कोरस में सभी-)
"जब हम सीढ़ी चढ़ते हैं तो क्या ज़रूरी है?"
"सीढ़ी की रेलिंग पकड़ना"
आदि आदि...
इस तरह से उनको (मैं बच्चों की लाइन की तरफ़ मुँह किये हुये, अपनी उँगली अपने होठों पर रखे हुये, धीरे-धीरे क़दम दर क़दम पीछे की ओर चलते हुये) लाइब्ररी तक ले कर जाती हूँ। यहाँ बच्चे अपनी पसंद की किताब लेते हैं और एक बेंच पर बैठ कर सब बच्चों के किताब ले लेने तक प्रतीक्षा करते हैं।
कल देखा, बेंच पर बैठी, ये छोटी सी बच्ची, चार-साढ़े चार साल, की खूब खी-खी कर के हँस रही है। मैंने पूछा कि क्या हुआ है? पास ही बैठी दूसरी बच्ची ने बताया, "मिसेज़ चटर्जी, फ़लाना इज़ टेलिंग दैट दे आर किसिंग" । मुझे हँसी आई, और मैंने कहा, "व्हाट इज़ इट हनी? " तो उस बच्ची ने अपनी किताब दिखाई, परी कथा थम्बलीना की कहानी में, आखिरी पन्ने पर राजकुमार और राजकुमारी पास-पास खड़े थे। वो कहने लगी, "दे आर किसिंग" । मैंने कहा, :" नो दे आर नाट..., दे आर स्टैंडिंग"। बच्ची ने थोड़े ध्यान से उस तस्वीर को फिर देखा और मुझे समझाते हुए कहा," येस, बट दे आर गोंइंग टु किस आफ़्टर" - (बस मन में यही कह पाई- जी अच्छा दादी अम्मा)
एक बच्चा है कक्षा पहली में, उसे मैंने कारीडर में चलते हुये नहीं देखा है कभी। वो अपने जूतों से लगातार फिसलते हुए ही चलता है। और फिर ब्रेक लगाते हुये, गिरते हुये, और फिर फ़िसलते हुये...हम टीचर भी अपना काम करते हैं, उसे रोज़ समझाते हैं, और वापस जाकर फिर चल कर आने को कहते हैं...आदि आदि, न वो सुधरा है अब तक, न हम :-)
सबसे अच्छा लगता है जब ये बच्चे खिल-खिल कर के हँसते हैं। छोटी-छोटी बातें इनको हँसाने के लिये काफ़ी होती हैं। कल एक खेल खिलवा रही थी बच्चों से। सभी एक गोलाकार में बैठे। एक बच्चे को खड़े होकर सबसे पहले अपनी उँगली को पेन्सिल मान कर हवा में अपना नाम लिखना था। फिर अपने सिर को पेन्सिल मान कर, फिर अपने पेट को , कुहनी को, आदि आदि...उनकी निश्छल हँसी देखते बनती थी।
रोज़ के कई कि़स्से...जाने कितने, इन दो महीनों में ही...जो सालों से इस उम्र के बच्चों को पढ़ा रहे हैं, उनके पास तो किस्सों का ख़ज़ाना होगा, इसमें भला क्या संदेह है...
Monday, September 21, 2009
इज़ दैट यू?
हर साल एक नया असाइन्मेंट होता है। इस साल भी, किंडर्गार्टन से कक्षा चौथी तक को म्यूज़िक, ड्रामा, आर्ट, आदि पढ़ाने की ज़िम्मेदारी। कभी इतने छोटे बच्चों को सम्हाला नहीं है, तो स्कूल के शुरु होते ही पहला सप्ताह रोज़ स्टाफ़रूम में रोना-धोना मचा रहता था मेरा। मेरे कॉलीग्स के बिना मैं क्या कर पाती, सच, शुरु से ले कर अब तक, हमेशा ही । तो सबने मुझे रिसोर्सेज़ पकड़ाये, सी.डी. दिये, कहा, "बच्चों को संगीत बहुत पसंद होता है। अगर देखो कि वे चंचल हो उठ रहे हैं तो बस सी.डी, चला देना, सब नाचने गाने लगेंगे और फिर शांत हो जायेंगे और तुम आगे पढ़ा सकोगी”। और बस इस मंत्र के चलते, स्कूल में रोज़ नाच-नाच कर बच्चों के साथ, घर आकर सीधे बिस्तर पर होती हूँ, खर्राटों के साथ।
एक सी.डी है जिग्गा जम्प नाम की...और बच्चों को वो ही सबसे पसंद है- उसमें टच योर हेड, टच योर शोल्डर, टच योर नी, और टच योर फ़ीट क्रमश: बढ़ते हुये लय के साथ कर कर के मैं तो आधी धराशायी हो चुकी होती हूँ, और बच्चे, "मिसेज़ चैटर्जी, कैन वी डू इट वन्स मोर?" की मीठी आवाज़ में अनुनय करते हैं, जिसका जवाब ," वाण्ट टु डू दिस अगैन? ओ.के... द लास्ट टाइम..." के अलावा देते नहीं बनता।
इस वीकेंड एक बंगाली शादी थी यहाँ। मुकुट-टोपोर के साथ वर-वधू, और ३ दिन लगातार की मस्ती, सजना धजना, और घूमना। इस चक्कर में इस वीकेंड खाना बनाना रह गया। तो आज स्कूल में लंच मक्डॉनल्ड से ही करना पड़ा। तो मक्डॉनल्ड से लौटते वक़्त, रास्ते में लाल ट्रैफ़िक सिग्नल पर रुकी हुई थी मैं। पास की गाड़ी में १७-१८ वर्षीय लड़कों का दल, खिड़की खुली हुई और पीछे सीट पर एक प्यारा कुत्ता। मुझे देख कर कुत्ता भौंकने लगा तो मैं उस से बात करने लगी, और बस अचानक ही उन लड़कों की हर्ष ध्वनि सुनाई दी," इज़ दैट यू, मिसेज़ चटर्जी? रिमेम्बर अस? टाउन सेन्टर स्कूल?" मैं हैरान-परेशां। वो बच्चे बड़े हो गये हैं, जिन्हें मैंने कक्षा सातवीं में पढ़ाया था। आज गाड़ी चलाते हुये, दाढ़ी मूँछ में, अपनी पुरानी टीचर से अचानक मिल कर फिर बच्चों जैसा ही उच्छास...
" गाइज़, आई कैंट बिलीव दिस...यू पीपल हैव ग्रोन अप सो मच..." इतना ही कह पाई, पहचान भी नहीं पाई सबको ठीक से, कि बस सिग्नल के हरे होते ही वो हाथ हिला कर अपनी दिशा में आगे बढ़ गये।
जाने कब ये किंडर्गार्टन के बच्चे भी देखते ही देखते बड़ॆ हो जायेंगे।आज से सालों बाद शायद ये भी कभी ज़िंदगी के किसी ट्रैफ़िक सिग्नल पर अचानक ही मिलेंगे, दो मिनट रुकेंगे और फिर हाथ हिला कर आगे बढ़ जायेंगे, अपनी मंज़िल की ओर...
एक सी.डी है जिग्गा जम्प नाम की...और बच्चों को वो ही सबसे पसंद है- उसमें टच योर हेड, टच योर शोल्डर, टच योर नी, और टच योर फ़ीट क्रमश: बढ़ते हुये लय के साथ कर कर के मैं तो आधी धराशायी हो चुकी होती हूँ, और बच्चे, "मिसेज़ चैटर्जी, कैन वी डू इट वन्स मोर?" की मीठी आवाज़ में अनुनय करते हैं, जिसका जवाब ," वाण्ट टु डू दिस अगैन? ओ.के... द लास्ट टाइम..." के अलावा देते नहीं बनता।
इस वीकेंड एक बंगाली शादी थी यहाँ। मुकुट-टोपोर के साथ वर-वधू, और ३ दिन लगातार की मस्ती, सजना धजना, और घूमना। इस चक्कर में इस वीकेंड खाना बनाना रह गया। तो आज स्कूल में लंच मक्डॉनल्ड से ही करना पड़ा। तो मक्डॉनल्ड से लौटते वक़्त, रास्ते में लाल ट्रैफ़िक सिग्नल पर रुकी हुई थी मैं। पास की गाड़ी में १७-१८ वर्षीय लड़कों का दल, खिड़की खुली हुई और पीछे सीट पर एक प्यारा कुत्ता। मुझे देख कर कुत्ता भौंकने लगा तो मैं उस से बात करने लगी, और बस अचानक ही उन लड़कों की हर्ष ध्वनि सुनाई दी," इज़ दैट यू, मिसेज़ चटर्जी? रिमेम्बर अस? टाउन सेन्टर स्कूल?" मैं हैरान-परेशां। वो बच्चे बड़े हो गये हैं, जिन्हें मैंने कक्षा सातवीं में पढ़ाया था। आज गाड़ी चलाते हुये, दाढ़ी मूँछ में, अपनी पुरानी टीचर से अचानक मिल कर फिर बच्चों जैसा ही उच्छास...
" गाइज़, आई कैंट बिलीव दिस...यू पीपल हैव ग्रोन अप सो मच..." इतना ही कह पाई, पहचान भी नहीं पाई सबको ठीक से, कि बस सिग्नल के हरे होते ही वो हाथ हिला कर अपनी दिशा में आगे बढ़ गये।
जाने कब ये किंडर्गार्टन के बच्चे भी देखते ही देखते बड़ॆ हो जायेंगे।आज से सालों बाद शायद ये भी कभी ज़िंदगी के किसी ट्रैफ़िक सिग्नल पर अचानक ही मिलेंगे, दो मिनट रुकेंगे और फिर हाथ हिला कर आगे बढ़ जायेंगे, अपनी मंज़िल की ओर...
Thursday, May 28, 2009
चूज़ों के जन्मने का जश्न





Friday, May 22, 2009
बच्चों को जवाब देने को बाध्य न करें कक्षा में

अक्सर देखा गया है कि कई बार कक्षा में बच्चे किसी भी सवाल का जवाब देने से घबराते हैं और जवाब नहीं देते। शायद बच्चा किसी सवाल का जवाब जानता भी हो, तो भी सबके सामने घबराता हो। ऐसे में क्या किया जाये। आइये जानते हैं कुछ छोटे-छोटे गुर।
(वैसे हम सभी शिक्षक इन गुरों को जानते हैं व अपनाते हैं, मगर आज एक बार फिर):
१) बहुत ज़रूरी है कि कक्षा में वातावरण बहुत ही comfortable हो। बहुत ज़रूरी है कि बच्चे को ये अहसास हो कि उसका जवाब गलत होने पर भी उसे अपमानित नहीं होना पड़ेगा, पूरी कक्षा के सामने।
२) कक्षा में शुरु से ही शिक्षक अपने कक्षा के नियमों में ये शामिल रखे कि किसी भी बच्चे का किसी दूसरे बच्चे को नीचा दिखाना मान्य नहीं है। ऐसे कुछ पोस्टर कक्षा में लगाये जा सकते हैं जिसमें ये बातें लिखी हों और बार-बार कक्षा में दोहराई जायें।
३) अगर बच्चा जवाब देने से हिचकिचाता है तो उसे एक दो ’हिन्ट’ दिये जा सकते हैं। अगर वो फिर भी जवाब देने से घबराता है तो वो अपने पास के विद्यार्थी से अपने जवाब को verify (सत्यापित) सकता है, और अपने सहपाठी से पूछ कर (after discussing it with a partner) थोड़ी देर बाद बता सकता है।
सबसे अच्छा तरीका है कि सवालों को पूछने से पहले १०-१५ मिनट का समय दिया जाये कि बच्चे ग्रूप बना कर इन प्रश्नों को discuss कर लें। इसमें कोई हानि नहीं है, क्योंकि हमारा उद्देश्य बच्चे के सीखने से है, न कि वो किस से या कैसे सीखता है।
४) कभी भी बच्चे को उसके जवाब के ग़लत होने पर डाँटिये नहीं। सबके सामने तो कतई नहीं। अगर आप को लगता है कि बच्चा पढ़ाई से कतराता है, तो यक़ीन जानिये, डाँटने से वो पढ़ाई नहीं करने लग जायेगा, न ही परीक्षा में आये कम अंकों को देख कर। ज़रूरी है कि वो बच्चा प्रोत्साहित हो। उसके लिये नाना उपाय हैं। ज़रूरी है उसे सिर्फ़," वाह! अच्छा जवाब है" कह कर ही छोड़ न दिया जाये बल्कि, ये कहा जाये कि " वाह! अच्छा जवाब। मुझे ये बहुत अच्छा लगा जब तुमने कहा कि....फ़लां फ़लां। अगर तुम ये भी बताते कि....फ़लां फ़लां...तो तुम्हारा जवाब और अच्छा होता।" इस तरह बच्चे को न सिर्फ़ प्रोत्साहन मिलेगा बल्कि उसे ये भी पता होगा कि आप उसके जवाब में और क्या आशा करते हैं, जिससे उसे अच्छे अंक प्राप्त हों। अगर जवाब ठीक नहीं तो उसे किसी दूसरे बच्चे के सही जवाब को सुनने के बाद फिर से मौक़ा दिया जाये।
५) बच्चे को "right to pass" या " जवाब न देने का अधिकार भी हो। अगर उसे कोई जवाब नहीं आता है तो उसे पूरी कक्षा के सामने जवाब देने को बाध्य न कर के जवाब न देने के अधिकार का उपयोग करने का मौक़ा दें। हाँ, इस अधिकार का प्रयोग बच्चे को एक नियम के अनुसार करने दिया जाये, शायद कुछ ऐसा कि सारे दिन में सिर्फ़ तीन बार ही वो इस अधिकार का उपयोग कर सकेगा जिससे वो इस अधिकार का समझबूझ कर प्रयोग करे।
६) कक्षा में अक्सर ही ग्रूप में गतिविधियाँ हों। वरना बच्चे एक दूसरे से सीखने और सहभागिता, सहयोगिता का गुण कभी भी सीख नहीं पायेंगे। वहीं, शिक्षक को कक्षा में नियमों का रखना भी ज़रूरी है।
आज बस इतना ही। कभी और कुछ और कक्षा में अनुशासन के बारे में।
एक बहुत अच्छा कार्यक्रम है जिसे कक्षा में अपनाया जा सकता है, बहुत ही कारगर जिसे कहते हैं TRIBES. भारत में अभी पता नहीं शिक्षकों के लिये इस कोर्स को करने की सुविधायें उपलब्ध हैं या नहीं, मगर इस कोर्स को लेने के बाद, मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला और कुछ बेहद कारगर उपाय जाने जिन्हें अपना कर कक्षा में एक बेहतर तरीके से अनुशासन को लागु किया जा सकता है। http://www.tribes.com/
Monday, April 06, 2009
मेरा न्यायाधीश- (अंतिम भाग)
भाग १ पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें-
भाग-२ पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें-
भाग-३ पढ़ने कि लिये यहाँ क्लिक करें-
गतांक से आगे-
धीरे-धीरे वह साल बीत गया। डेविड अच्छे नंबरों से पास हुआ और उसे सामन्य तीसरे दर्जे में प्रवेश मिल गया। साल के अंत तक उसका व्यवहार काफ़ी सुधर गया था और उत्पात बहुत कम हो गया था। सत्र के अंत में मुझे फिर एक बार आफ़िस में बुलाया गया। इस बार प्रिंसिपल ने मेरे सामने एक नया प्रस्ताव रखा। " डेविड के व्यवहार में इतनी उन्नति होने के कारण हम लोग यह चाहते हैं कि अगले साल भी वो तुम्हारे साथ रहे। ऐसे बच्चों को यदि दो-तीन साल स्थिर वातावरण मिल जाये तो उनका व्यवहार भी संतुलित हो जाता है। तुम सोच कर देखो, यदि तुम्हें आपत्ति न होगी तो अगले साल तीसरी कक्षा में तुम ही उसे पढ़ाओगी। "
डेविड अक्सर ही अगले साल के बारे में अपने ढंग से चिंता किया करता था। शायद जीवन में पहली बार उसे स्थिरता का स्वाद मिला था। घर लौटने पर मां मिले न मिले, कक्षा के दरवाज़े पर मैं उसे अवश्य खड़ी मिलूँगी, इसका विश्वास उसे हो चला था। इस बार जब उसने " आइ वन्डर नेक्सट इयर..." से अपना वाक्य शुरु किया तो उसके कंधे पर हाथ रख कर मैंने उसे बताया कि अगर उसका काम व व्यवहार इसी तरह सुधरते रहे तो अगले साल वह तीसरी कक्षा में मेरे ही साथ रहेगा।
मेरी बात को सुन कर आई उसकी आँखों की चमक व मुख की मुस्कान को याद करके मेरा मन डूबने लगता है। जीवन में किये को अनकिया और कहे को अनकहा नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हो सकता तो सब से पहले मैं अपने इस वाक्य को अनकहा करती।
धीरे-धीरे वह साल बीत गया। डेविड अच्छे नंबरों से पास हुआ और उसे सामन्य तीसरे दर्जे में प्रवेश मिल गया। साल के अंत तक उसका व्यवहार काफ़ी सुधर गया था और उत्पात बहुत कम हो गया था। सत्र के अंत में मुझे फिर एक बार आफ़िस में बुलाया गया। इस बार प्रिंसिपल ने मेरे सामने एक नया प्रस्ताव रखा। " डेविड के व्यवहार में इतनी उन्नति होने के कारण हम लोग यह चाहते हैं कि अगले साल भी वो तुम्हारे साथ रहे। ऐसे बच्चों को यदि दो-तीन साल स्थिर वातावरण मिल जाये तो उनका व्यवहार भी संतुलित हो जाता है। तुम सोच कर देखो, यदि तुम्हें आपत्ति न होगी तो अगले साल तीसरी कक्षा में तुम ही उसे पढ़ाओगी। "
डेविड अक्सर ही अगले साल के बारे में अपने ढंग से चिंता किया करता था। शायद जीवन में पहली बार उसे स्थिरता का स्वाद मिला था। घर लौटने पर मां मिले न मिले, कक्षा के दरवाज़े पर मैं उसे अवश्य खड़ी मिलूँगी, इसका विश्वास उसे हो चला था। इस बार जब उसने " आइ वन्डर नेक्सट इयर..." से अपना वाक्य शुरु किया तो उसके कंधे पर हाथ रख कर मैंने उसे बताया कि अगर उसका काम व व्यवहार इसी तरह सुधरते रहे तो अगले साल वह तीसरी कक्षा में मेरे ही साथ रहेगा।
मेरी बात को सुन कर आई उसकी आँखों की चमक व मुख की मुस्कान को याद करके मेरा मन डूबने लगता है। जीवन में किये को अनकिया और कहे को अनकहा नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हो सकता तो सब से पहले मैं अपने इस वाक्य को अनकहा करती।
हर क्षेत्र की तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी राजनीति और स्पर्धा चलती है। सत्र के अंत मे ये चीज़ें ज़ोर पकड़ती हैं क्योंकि उसी समय नये साल के लिये महत्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं। तीसरी कक्षाओं की तीनों अध्यापिकायें उस समय मिल जुल कर टीम-टीचिंग कर रहीं थीं। यह क्रम कई सालों से चल रहा था। स्वाभाविक ही था कि उस व्यवस्था में व्यवधान आने की आशंका से वे क्षुब्ध हुईं। संभवत: उससे भी बड़ा क्षोभ का कारण वह इंगित था जिसके द्वारा उनकी कठिन बच्चों को संभालने की योग्यता पर संदेह किया गया था। एक दिन तीनों ने आकर मुझसे अनुरोध किया कि तीसरी कक्षा को पढ़ाने का अपना निर्णय मैं बदल दूँ। उनका विश्वास था कि डेविड का व्यवहार इतना सुधर गया है कि तीसरी कक्षा में उसे संभालना कठिन न होगा। " फिर हर साल बच्चों की परिपक्वता में वृद्धि होती ही है, डेविड इस नियम का अपवाद तो नहीं होगा", उन्होंने कहा। अपने ढंग से मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की- डेविड का सारा जीवन ही नियमों का अपवाद रहा है तो उससे भिन्न होने की ही अपेक्षा होनी चाहिये, वह अभी भी सामान्य नहीं हो सका है। किंतु सक्षेप में यह कि मैं उन्हें अपना दृष्टिकोण नहीं समझा सकी। " इसीलिये हम लोग तुम से कह रहे हैं, प्रिंसिपल तो सुनेंगे नहीं", उन्होंने उपालम्भ भरे स्वर में कहा।
कुछ समय सोचने के बाद मैंने प्रिंसिपल को अपना निर्णय बता दिया, " नई कक्षा पढ़ाने में बहुत तैयारी और मेहनत करनी होती है। डेविड तो अब बहुत सुधर गया है। उसे यूँ ही तीसरी कक्षा में जाने दीजिये। मैं दूसरी कक्षा ही पढ़ाउँगी। "
मेरी बात सुन कर वे क्षुब्ध और चकित हुये। बीस साल से मैं उनके साथ काम कर रही थी। केवल मेहनत से बचने के लिये यह निर्णय लिया जा रहा है, इस पर उन्हें स्वभावत: विश्वास नहीं हुआ। पर समझाने की कुछ असफल कोशिशों के बाद उन्होंने मेरा निर्णय स्वीकार कर लिया।
आज, इतने वर्षों के बाद भी अक्सर मुड़ कर मैं जीवन के उस छोटे (?) से निर्णय को उलटती-पलटती हूँ। क्यों लिया मैंने उसे? झगड़े-झंझट से दूर रहने की अपनी प्रवृत्ति के कारण? ’प्राइमरी डिविशन’ में वैमनस्य की आशंका से? या मन में कहीं दबी-ढकी यह भावना थी कि ये लोग भी तो देखें कि डेविड को संभालना इतना आसान नहीं। कितनी मेहनत उसे सीधी राह पर लाने में लगी है, इसका कुछ अनुमान इन लोगों को भी तो हो। क्या वह मेरे अहं की आँधी थी जिसने अपने शोर में डेविड की कमज़ोर आवाज़ को दबा लिया था?
इस निर्णय को लेने के बाद मेरा मन बुझा-बुझा सा रहा। स्कूल के अंतिम दिन डेविड को पास बुला कर बड़े प्यार से मैंने उसे उसकी अगले साल की शिक्षिका का नाम बताया। विस्मित हो कर उसने अपनी प्रखर दृष्टि मुझ पर केंद्रित कर, अपने गंभीर स्वर में कहा, " बट यू प्रामिस्ड..."। कितने ही तर्क मैंने उसे देने के लिये सोच रखे थे, उसके उस अधूरे वाक्य ने उन्हें धुँधला कर दिया। उसने तो अपनी ओर से समझौते की हर शर्त निभाई थी। मेरी ओर से दिया हर कारण, हर तर्क उसके लिये बेमानी था। विदा कह कर वह धीरे-धीरे वहाँ से चला गया।
सितंबर की चहल-पहल आरंभ हुई। तीसरी कक्षायें स्कूल के दूसरे कोने में थीं अत: मुझे डेविड कम दिखा। धीरे-धीरे फिर उसका नाम स्टाफ़रूम में सुनाई देने लगा। धीमी गति से वह फिर अपने पुराने रूप में लौट रहा था। दो-तीन बार प्रिंसिपल उसे मेरे कमरे में भी लाये। जल्दी से पास का डेस्क ख़ाली करके मैंने उसे बिठाया। खोई-खोई उदासीन आँखों से वह चारों ओर देखता रहा। मैंने उससे बात करने की भी कोशिश की पर बहुत जल्दी मुझे प्रतीत हो गया कि स्नेह का वह तंत, जो मुझे उससे बाँधे था अब टूट गया है। अनजाने में ही सही, मैंने अपने आप को उन वयस्कों के गिरोह में शामिल कर लिया था जिन्होंने समय-समय पर उसे धोखा दिया था, उसके कोमल मन पर चोट पर चोट पहुँचाई थी।
कुछ दिनों बाद डेविड को ’बिहेवियर माडिफ़िकेशन क्लास’ में भेज दिया गया। वहाँ से वह वापस नहीं लौटा। वह कक्षा दूसरे स्कूल में थी इसलिये उसका कोई समाचार भी नहीं मिला। आज वह कहाँ है, कैसा है मुझे नहीं मालूम। डरती हूँ कि किसी दिन किसी अपराध के सिलसिले में बनी नामसूची में मुझे उसका नाम पढ़ने को न मिल जाये।
वह किसी का भी अपराधी क्यों न हो, आज यह स्वीकार करने में मुझे कोई दुविधा नहीं कि उसकी विश्वास भावना को ठेस पहुँचा कर मैंने उसके प्रति अक्षम्य अपराध किया है। इस मामले का निपटारा कौन करेगा, मैं नहीं जानती। किन्तु यदि यह कल्पना सच है कि अपने अपराधों का दंड हमें जीवनोपरांत भी मिलता है, तो मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मेरा न्यायाधीश डेविड ही बने, मेरी सज़ा का निर्णय वही ले। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे अपराध पर विचार करते समय भवें कुंचित कर, अपनी नीली आँखों की प्रखर दृष्टि को मुझ पर केंद्रित कर वह यही कहेगा," आइ विल जस्ट अक्सेप्ट अन अपालाजी, फ़्राम यू, मिसेज़ कुमार"।
--अचला दीप्ति कुमार
Sunday, April 05, 2009
मेरा न्यायाधीश- भाग ३
भाग १- पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें-
भाग-२ पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें-
गतांक से आगे-
डेविड के उत्पात के ढंग अनोखे थे। कभी कीचड़ से भरे बूटों से लंबा रास्ता चुन कर कक्षा में पड़े कालीन पर पैर जमाता हुआ धीरे-धीरे वह अपने डेस्क तक पहुँचता। डाँटने पर वह भोलेपन से उत्तर देता, " आपका ही तो नियम है कि नंगे पैरों क्लास में नहीं आना चाहिये क्योंकि कोई पिन चुभ सकता है। आज कक्षा के जूते मैं घर पर ही भूल गया। " कभी कापी में कोई ’x’ देख कर उस ग़लत सवाल को वह झुँझला कर इतनी ज़ोर से मिटाता कि दूसरे पन्ने त्राहि-त्राहि कर उठते और इरेज़र उस पन्ने को पार कर डेस्क की चिकनी सतह तक पहुँच जाता। कभी वह खाने का डिब्बा इस बेपरवाही से शेल्फ़ पर फेंकता कि वह खुल जाता, फ़्लास्क लुढ़क कर दुग्धधारा बरामदे में प्रवाहित करने लगता और सैंडविच उछल कर पास खड़े किसी बच्चे के सिर का आभूषण बन जाता।
अपने डेस्क पर वह एक बाल्टीनुमा डिब्बे में कई दर्जन रंगीन पेंसिलें रखता था। जब भी मैं सारे बच्चों का ध्यान कठिनाई से अपनी ओर खींच कर कोई महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाना शुरु करती, न जाने किस मंत्र से बिंध कर वह डिब्बा डेस्क के कोने तक पहुँच जाता और फिर मानो किसी अनजान वायु के धोखे से वह ज़ोर की आवाज़ के साथ ज़मीन पर गिर पड़ता। दर्जनों पेंसिलें चारों ओर बिखर जातीं। सारे बच्चे उन्हें उठाने को दौड़ते और डेविड बड़े आराम से उन्हें धीरे-धीरे कलर-कोड के हिसाब से वापस डिब्बे में जमाता। जब तक ये काम ख़त्म होता, मेरा रक्तचाप इतना बढ़ जाता कि पढ़ाने का उत्साह ही ख़त्म हो जाता।
डेविड के बुद्धिशाली होने में कोई संदेह नहीं था। हाँ, काम करने में विशेषत: लिखित कार्य में उसकी कोई रुचि नहीं थी। अपने काम की नन्ही सी त्रुटि भी उसे उससे विरत करने के लिये काफ़ी थी। पश्चिमी शिक्षा पद्धति में ऐसे बच्चों को उत्साहित करने के बहुत तरीक़े हैं। उनमें से बहुतों का प्रयोग करके ही डेविड से कुछ काम करवाया जा सका।
डेविड को अनुशासन में रखने के लिये मैंने उसका डेस्क अपनी मेज़ के साथ ही लगा लिया था। उन कुछ महीनों के समय में हममें कितने झगड़े हुये, कितने ही वाद विवाद! उन सब के बारे में लिखने बैठूँ तो शायद एक नये महाभारत की रचना हो जाये। संक्षेप में इतना ही कि धीरे-धीरे डेविड के उत्पात कम होने लगे। मार्च-अप्रैल तक डेविड और मेरे संबंध एक स्नेह के बंधन में बँध चुके थे। यह क्रिया बड़ी धीमी व कष्टप्रद थी। हाँ, जिस गति से डेविड ने मेरे हृदय पर अधिकार जमाना शुरु किया, उसी तरह मेरी मेज़ पर भी। अपनी सीमा का अतिक्रमण करके पहले उसकी रंगीन पेंसिलों की बाल्टी मेरी मेज़ पर आई। वहाँ से उसके गिरने की संभावना कम थी इसलिये मैंने उसे अनदेखा कर दिया। धीरे-धीरे उसकी किताबें, हाकी के कार्ड, व छोटे-मोटे खिलौने भी मेरी मेज़ पर जम गये। अपना डेस्क वह बहुत साफ़-सुथरा रखता था। बस मेरी मेज़ की ही दुर्दशा थी।
डेविड कभी भी दूसरे बच्चों को तंग नहीं करता था। यह बात मैं पहले भी कह चुकी हूँ। एक दिन रिसेस के समय दीवार के सहारे खड़ा वह अपना ’ग्रनोला बार’ बड़े चाव से खा रहा था। तभी एक बड़े लड़के बिली ने वह बार छीनना चाहा। डेविड के आपत्ति करने पर उसने उसे ऐसा धक्का दिया कि डेविड का सर दीवार से जा टकराया। डेविड अपने हाथ से आँसू पोंछता उसे बुरा-भला कहता रहा पर बिली पर उसका कोई असर नहीं हुआ। इस घटना की साक्षी मैं थी। अत: दोनों को साथ ले कर मैंने ये बात प्रिंसिपल को बताने का फ़ैसला कर लिया।
दोनों को प्रिंसिपल के आफ़िस के बाहर छोड़ कर मैंने उनको सारी घटना बताई। " डेविड को आपसे हमेशा सज़ा ही मिली है। आज उसका पक्ष ले कर आप बिली को सज़ा दें।" मैंने कहा " डेविड भी तो देखे कि जो व्यवस्था नियम तोड़ने पर दोषी को सज़ा देती है, वही नियम के साथ रहने वाले को न्याय भी दिलाती है, चाहे वह कोई भी क्यों न हो। " प्रिंसिपल ने मामले की गंभीरता को समझते हुये उन दोनों को अंदर बुलाया।
डेविड की आँखें रोने के कारण लाल थीं, माथे पर गूमड़ निकल आया था। बिली भी कुछ भयभीत सा था। सारी घटना डेविड ने बताई। झूठ बोलने की कोई संभावना न देख कर बिली ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। गवाह के रूप में मैं और वह आधा खाया ग्रनोला बार उसके हाथ में ही मौजूद था।
संभवत: मेरी बात को ध्यान में रखते हुये प्रिंसिपल ने पहले तो बिली की कड़ी ताड़ना की, फिर डेविड के कंधे पर हाथ रख कर कहा, " डेविड, बिली ने तुम्हारे प्रति अन्याय किया है। तुम ही उसकी सज़ा का विचार करो। उसके मां-बाप से शिकायत की जा सकती है, उसे ससपेंड किया जा सकता है, अथवा तुम जितने चाहो उतने ’डिटेन्शन्स’ उसे दिलवा सकते हो। तुम्हारा ग्रनोला बार तो उसे नया ला कर देना ही होगा, क्षमा भी उसे तुमसे माँगनी होगी पर बाक़ी सज़ा तुम ही तय करो।"
उनकी बात सुन कर मुझे झुंझलाहट आई। यह तो नन्हें बच्चे के हाथ में तलवार थमा देना हुआ। ये अधिकारी लोग बच्चों को क्या समझेंगे! मेरे उनसे कहने का यह मतलब तो नहीं था कि डेविड को ऐसा अबाध अधिकार दे दिया जाये।
इधर प्रिंसिपल अपनी सूझ-बूझ पर स्वयं कायल हो रहे थे, उधर मैं क्षुब्ध सी खड़ी थी। बेचारे बिली का मुँह सूख सा गया था। संभवत: उसने अपनी वृद्धावस्था तक अपने को कोने में खड़े रहने की कल्पना कर ली थी। हम तीनों ही डेविड का मुँह ताक रहे थे।
डेविड के चेहरे पर उस समय जो भाव था उसे मैं आज तक नहीं भूल पाई हूँ। इस अप्रत्याशित अधिकार से उसके गांभीर्य में कोई अंतर नहीं आया। कुछ सोचने के बाद उसने गर्दन कुछ टेढ़ी की और बिली को भवें कुंचित कर, सीधी, सतर दृष्टि से देखते हुये शांत, गंभीर स्वर में कहा, " आइ विल अक्सेप्ट जस्ट अन अपोलोजी फ़्राम यू, बिली" । प्रिंसिपल और मैं भौंचक्के से रह गये। बिली ने फ़ुर्ती से डेविड से क्षमा प्रार्थना की व द्रुत गति से बाहर भागा। डेविड भी मंथर गति से उसके पीछे चला गया। केवल प्रिंसिपल और मैं एक दूसरे का मुँह ताकते खड़े रहे।
--अचला दीप्ति कुमार
क्रमश: (अंतिम भाग)
भाग-२ पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें-
गतांक से आगे-
डेविड के उत्पात के ढंग अनोखे थे। कभी कीचड़ से भरे बूटों से लंबा रास्ता चुन कर कक्षा में पड़े कालीन पर पैर जमाता हुआ धीरे-धीरे वह अपने डेस्क तक पहुँचता। डाँटने पर वह भोलेपन से उत्तर देता, " आपका ही तो नियम है कि नंगे पैरों क्लास में नहीं आना चाहिये क्योंकि कोई पिन चुभ सकता है। आज कक्षा के जूते मैं घर पर ही भूल गया। " कभी कापी में कोई ’x’ देख कर उस ग़लत सवाल को वह झुँझला कर इतनी ज़ोर से मिटाता कि दूसरे पन्ने त्राहि-त्राहि कर उठते और इरेज़र उस पन्ने को पार कर डेस्क की चिकनी सतह तक पहुँच जाता। कभी वह खाने का डिब्बा इस बेपरवाही से शेल्फ़ पर फेंकता कि वह खुल जाता, फ़्लास्क लुढ़क कर दुग्धधारा बरामदे में प्रवाहित करने लगता और सैंडविच उछल कर पास खड़े किसी बच्चे के सिर का आभूषण बन जाता।
अपने डेस्क पर वह एक बाल्टीनुमा डिब्बे में कई दर्जन रंगीन पेंसिलें रखता था। जब भी मैं सारे बच्चों का ध्यान कठिनाई से अपनी ओर खींच कर कोई महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाना शुरु करती, न जाने किस मंत्र से बिंध कर वह डिब्बा डेस्क के कोने तक पहुँच जाता और फिर मानो किसी अनजान वायु के धोखे से वह ज़ोर की आवाज़ के साथ ज़मीन पर गिर पड़ता। दर्जनों पेंसिलें चारों ओर बिखर जातीं। सारे बच्चे उन्हें उठाने को दौड़ते और डेविड बड़े आराम से उन्हें धीरे-धीरे कलर-कोड के हिसाब से वापस डिब्बे में जमाता। जब तक ये काम ख़त्म होता, मेरा रक्तचाप इतना बढ़ जाता कि पढ़ाने का उत्साह ही ख़त्म हो जाता।
डेविड के बुद्धिशाली होने में कोई संदेह नहीं था। हाँ, काम करने में विशेषत: लिखित कार्य में उसकी कोई रुचि नहीं थी। अपने काम की नन्ही सी त्रुटि भी उसे उससे विरत करने के लिये काफ़ी थी। पश्चिमी शिक्षा पद्धति में ऐसे बच्चों को उत्साहित करने के बहुत तरीक़े हैं। उनमें से बहुतों का प्रयोग करके ही डेविड से कुछ काम करवाया जा सका।
डेविड को अनुशासन में रखने के लिये मैंने उसका डेस्क अपनी मेज़ के साथ ही लगा लिया था। उन कुछ महीनों के समय में हममें कितने झगड़े हुये, कितने ही वाद विवाद! उन सब के बारे में लिखने बैठूँ तो शायद एक नये महाभारत की रचना हो जाये। संक्षेप में इतना ही कि धीरे-धीरे डेविड के उत्पात कम होने लगे। मार्च-अप्रैल तक डेविड और मेरे संबंध एक स्नेह के बंधन में बँध चुके थे। यह क्रिया बड़ी धीमी व कष्टप्रद थी। हाँ, जिस गति से डेविड ने मेरे हृदय पर अधिकार जमाना शुरु किया, उसी तरह मेरी मेज़ पर भी। अपनी सीमा का अतिक्रमण करके पहले उसकी रंगीन पेंसिलों की बाल्टी मेरी मेज़ पर आई। वहाँ से उसके गिरने की संभावना कम थी इसलिये मैंने उसे अनदेखा कर दिया। धीरे-धीरे उसकी किताबें, हाकी के कार्ड, व छोटे-मोटे खिलौने भी मेरी मेज़ पर जम गये। अपना डेस्क वह बहुत साफ़-सुथरा रखता था। बस मेरी मेज़ की ही दुर्दशा थी।
डेविड कभी भी दूसरे बच्चों को तंग नहीं करता था। यह बात मैं पहले भी कह चुकी हूँ। एक दिन रिसेस के समय दीवार के सहारे खड़ा वह अपना ’ग्रनोला बार’ बड़े चाव से खा रहा था। तभी एक बड़े लड़के बिली ने वह बार छीनना चाहा। डेविड के आपत्ति करने पर उसने उसे ऐसा धक्का दिया कि डेविड का सर दीवार से जा टकराया। डेविड अपने हाथ से आँसू पोंछता उसे बुरा-भला कहता रहा पर बिली पर उसका कोई असर नहीं हुआ। इस घटना की साक्षी मैं थी। अत: दोनों को साथ ले कर मैंने ये बात प्रिंसिपल को बताने का फ़ैसला कर लिया।
दोनों को प्रिंसिपल के आफ़िस के बाहर छोड़ कर मैंने उनको सारी घटना बताई। " डेविड को आपसे हमेशा सज़ा ही मिली है। आज उसका पक्ष ले कर आप बिली को सज़ा दें।" मैंने कहा " डेविड भी तो देखे कि जो व्यवस्था नियम तोड़ने पर दोषी को सज़ा देती है, वही नियम के साथ रहने वाले को न्याय भी दिलाती है, चाहे वह कोई भी क्यों न हो। " प्रिंसिपल ने मामले की गंभीरता को समझते हुये उन दोनों को अंदर बुलाया।
डेविड की आँखें रोने के कारण लाल थीं, माथे पर गूमड़ निकल आया था। बिली भी कुछ भयभीत सा था। सारी घटना डेविड ने बताई। झूठ बोलने की कोई संभावना न देख कर बिली ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। गवाह के रूप में मैं और वह आधा खाया ग्रनोला बार उसके हाथ में ही मौजूद था।
संभवत: मेरी बात को ध्यान में रखते हुये प्रिंसिपल ने पहले तो बिली की कड़ी ताड़ना की, फिर डेविड के कंधे पर हाथ रख कर कहा, " डेविड, बिली ने तुम्हारे प्रति अन्याय किया है। तुम ही उसकी सज़ा का विचार करो। उसके मां-बाप से शिकायत की जा सकती है, उसे ससपेंड किया जा सकता है, अथवा तुम जितने चाहो उतने ’डिटेन्शन्स’ उसे दिलवा सकते हो। तुम्हारा ग्रनोला बार तो उसे नया ला कर देना ही होगा, क्षमा भी उसे तुमसे माँगनी होगी पर बाक़ी सज़ा तुम ही तय करो।"
उनकी बात सुन कर मुझे झुंझलाहट आई। यह तो नन्हें बच्चे के हाथ में तलवार थमा देना हुआ। ये अधिकारी लोग बच्चों को क्या समझेंगे! मेरे उनसे कहने का यह मतलब तो नहीं था कि डेविड को ऐसा अबाध अधिकार दे दिया जाये।
इधर प्रिंसिपल अपनी सूझ-बूझ पर स्वयं कायल हो रहे थे, उधर मैं क्षुब्ध सी खड़ी थी। बेचारे बिली का मुँह सूख सा गया था। संभवत: उसने अपनी वृद्धावस्था तक अपने को कोने में खड़े रहने की कल्पना कर ली थी। हम तीनों ही डेविड का मुँह ताक रहे थे।
डेविड के चेहरे पर उस समय जो भाव था उसे मैं आज तक नहीं भूल पाई हूँ। इस अप्रत्याशित अधिकार से उसके गांभीर्य में कोई अंतर नहीं आया। कुछ सोचने के बाद उसने गर्दन कुछ टेढ़ी की और बिली को भवें कुंचित कर, सीधी, सतर दृष्टि से देखते हुये शांत, गंभीर स्वर में कहा, " आइ विल अक्सेप्ट जस्ट अन अपोलोजी फ़्राम यू, बिली" । प्रिंसिपल और मैं भौंचक्के से रह गये। बिली ने फ़ुर्ती से डेविड से क्षमा प्रार्थना की व द्रुत गति से बाहर भागा। डेविड भी मंथर गति से उसके पीछे चला गया। केवल प्रिंसिपल और मैं एक दूसरे का मुँह ताकते खड़े रहे।
--अचला दीप्ति कुमार
क्रमश: (अंतिम भाग)
Saturday, April 04, 2009
मेरा न्यायाधीश- भाग २
पहला भाग पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें-
गतांक से आगे-
अगला साल किस तरह शुरु होगा ये सोचते ही मेरा मन डूबने लगा। यंत्रचालित की तरह उसकी पारिवारिक फ़ाइल हाथ में पकड़े मैं अपने कमरे में आई। धीरे-धीरे, जब उसके पन्ने पलटे, तो पाया कि मन में उभरे आक्रोश को हटा कर सहानुभूति की भावना मेरे अंदर जाग रही है।
डेविड अपनी माता-पिता की दूसरी संतान था। उसके जन्म के कुछ वर्षों बाद ही पिता उसके जीवन से ऐसे लुप्त हुये कि फिर उनका पता नहीं चला। डेविड की मां का मस्तिष्क भी बहुत संतुलित नहीं था। कुछ वर्षों वो एक दूसरे व्यक्ति के साथ रही। डेविड को उससे भी बहुत स्नेह हो गया था। पर एक कार की धोखाधड़ी के सिलसिले में वह और डेविड का बड़ा भाई दोनों पकड़े गये। अब वह व्यक्ति जेल में है और डेविड का भाई ग्रूप होम ( सुधार गृह) में। उनसे डेविड का मिलना नहीं होता है। डेविड की मां जब संतुलित होती है, तो डेविड उसके साथ रहता है वरना उसे विभिन्न फ़ास्टर केयर ( पालक गृहों ) में भेज दिया जाता है। उसके मन में असुरक्षा की भावना घर कर गई है और यही भावना, उसके उद्दंड वयवहार का कारण है।
ये सब तो ठीक, पर इस बच्चे को सितंबर से अपनी कक्षा में रखना मेरे लिये एक चुनौती ही थी। लंबे अनुभव के अलावा, इस स्थिति से सामना करने के लिये, मेरे पास और कोई भी हथियार नहीं था। डेविड को मैंने स्कूल में कई बार देखा था। लंच रूम से निकाले जाने पर दरवाज़े के पास बैठ कर आराम से खाना कहते हुये, जिम कक्षा से निकाले जाने पर दीवार से टिक कर उदासीन भाव से बाहर देखते हुये। पर उस दिन यार्ड ड्यूटी के दौरान उसे मैंने ध्यान से देखा- पहली बार! मुझे तो वो बड़ा भोला-भाला, सुंदर सा बच्चा लगा। गहरी नीली आँखें, सुनहरे बाल, तीखे नक्श, दुबला-पतला छोटा डील-डौल, साफ़-सुथरे कपड़े पहने हुये। बस आँखों में कुछ उदासीनता सी थी व चेहरे पर एक अस्वाभाविक गंभीरता। दूसरे बच्चों के साथ खेलते मैंने उसे नहीं देखा, न ही उन्हें तंग करते हुये।
मई में बारिश के कारण, मैदान में जगह-जगह पानी भर जाता है। उन्हीं जगहों में बैठ कर वह अकेला एक दो खिलौने की कारों से खेलता रहता था। यदि सितंबर में उसे मेरी कक्षा में रहना है तो अभी से उसका मन जीतने का प्रयास करना चाहिये, ये सोच कर एक दिन दो तीन छोटी-छोटी कारें मैंने उसके पास रख कर कहा, " ये मेरे पास बेकार पड़ी थीं, तुम इनसे खेल सकते हो।" डेविड ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। मशीनी ढंग से धन्यवाद दे कर वह अपनी ही कारों से खेलता रहा। मेरी दी हुई कारें उपेक्षित सी एक ओर पड़ी रहीं। मेरे मन पर हल्की सी चोट लगी। पर तभी ध्यान आया, जब एक ऐसे बच्चे के रिजेक्शन या अस्वीकृति से जिसका मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं है, मुझे दुख हो रहा है, तो डेविड की मन:स्थिति कैसी होगी जिसके कोमल मन पर कितने ही आघात उसके प्रिय व्यक्तियों ने दिये हैं। स्वाभाविक ही है कि वह किसी के भी स्नेहमय व्यवहार को शंका की दृष्टि से देखता है।
सितंबर में कुछ आशंका के साथ मैंने डेविड का कक्षा में स्वागत किया। बड़े निस्पृह भाव से एक कोने का डेस्क चुन कर वह चुपचाप बैठा इधर-उधर देखता रहा। उसकी दृष्टि की वीतरागता ने मुझे विचलित सा कर दिया। जेल बदले जाने पर कैदियों की दृष्टि में ऐसी ही उदासीनता रहती होगी। एक स्नेह की लहर मन में उमड़ी। लगा उसे समझाऊँ, कहूँ, " बच्चे! तुम्हारी ज़िंदगी तो अभी शुरु ही हो रही है। कितना कुछ तुम्हारे आगे है। अभी से ऐसी हताशा कैसी? "
संभवत: स्नेह की उसी डोर ने मुझे उससे बाँधे रखा वरना अपनी ओर से तो उसने पूरा प्रयास किया कि मैं अपनी कक्षा से उसे निकाल दूँ। देर से आना, चीज़ें तोड़ना-फोड़ना, काम न करना, मुँहफट जवाब देना, उसके नित्य के काम थे। रूलर को तोड़ताड़ कर उसने पेंसिल की आकार का बना दिया था, पेंसिल को कुतर-कुतर कर रबर के आकार, और रबर का काम तो वह उँगलियों से ही चला लेता था। हाँ, इतना ज़रूर था कि वो दूसरे बच्चों को तंग नहीं करता था। उसकी लड़ाई मानो वयस्कों से ही थी। किसी भी बच्चे को किसी भी तरह की तकलीफ़ पहुँचने पर डेविड का व्यवहार उसके प्रति बहुत ही प्यार भरा होता था। उसके स्वभाव के इसी पहलू ने मुझे आश्वासन दिया कि यह केस पूरी तरह से हारा नहीं गया है।
क्रमश: (भाग ३ पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें)
----अचला दीप्ति कुमार
गतांक से आगे-
अगला साल किस तरह शुरु होगा ये सोचते ही मेरा मन डूबने लगा। यंत्रचालित की तरह उसकी पारिवारिक फ़ाइल हाथ में पकड़े मैं अपने कमरे में आई। धीरे-धीरे, जब उसके पन्ने पलटे, तो पाया कि मन में उभरे आक्रोश को हटा कर सहानुभूति की भावना मेरे अंदर जाग रही है।
डेविड अपनी माता-पिता की दूसरी संतान था। उसके जन्म के कुछ वर्षों बाद ही पिता उसके जीवन से ऐसे लुप्त हुये कि फिर उनका पता नहीं चला। डेविड की मां का मस्तिष्क भी बहुत संतुलित नहीं था। कुछ वर्षों वो एक दूसरे व्यक्ति के साथ रही। डेविड को उससे भी बहुत स्नेह हो गया था। पर एक कार की धोखाधड़ी के सिलसिले में वह और डेविड का बड़ा भाई दोनों पकड़े गये। अब वह व्यक्ति जेल में है और डेविड का भाई ग्रूप होम ( सुधार गृह) में। उनसे डेविड का मिलना नहीं होता है। डेविड की मां जब संतुलित होती है, तो डेविड उसके साथ रहता है वरना उसे विभिन्न फ़ास्टर केयर ( पालक गृहों ) में भेज दिया जाता है। उसके मन में असुरक्षा की भावना घर कर गई है और यही भावना, उसके उद्दंड वयवहार का कारण है।
ये सब तो ठीक, पर इस बच्चे को सितंबर से अपनी कक्षा में रखना मेरे लिये एक चुनौती ही थी। लंबे अनुभव के अलावा, इस स्थिति से सामना करने के लिये, मेरे पास और कोई भी हथियार नहीं था। डेविड को मैंने स्कूल में कई बार देखा था। लंच रूम से निकाले जाने पर दरवाज़े के पास बैठ कर आराम से खाना कहते हुये, जिम कक्षा से निकाले जाने पर दीवार से टिक कर उदासीन भाव से बाहर देखते हुये। पर उस दिन यार्ड ड्यूटी के दौरान उसे मैंने ध्यान से देखा- पहली बार! मुझे तो वो बड़ा भोला-भाला, सुंदर सा बच्चा लगा। गहरी नीली आँखें, सुनहरे बाल, तीखे नक्श, दुबला-पतला छोटा डील-डौल, साफ़-सुथरे कपड़े पहने हुये। बस आँखों में कुछ उदासीनता सी थी व चेहरे पर एक अस्वाभाविक गंभीरता। दूसरे बच्चों के साथ खेलते मैंने उसे नहीं देखा, न ही उन्हें तंग करते हुये।
मई में बारिश के कारण, मैदान में जगह-जगह पानी भर जाता है। उन्हीं जगहों में बैठ कर वह अकेला एक दो खिलौने की कारों से खेलता रहता था। यदि सितंबर में उसे मेरी कक्षा में रहना है तो अभी से उसका मन जीतने का प्रयास करना चाहिये, ये सोच कर एक दिन दो तीन छोटी-छोटी कारें मैंने उसके पास रख कर कहा, " ये मेरे पास बेकार पड़ी थीं, तुम इनसे खेल सकते हो।" डेविड ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। मशीनी ढंग से धन्यवाद दे कर वह अपनी ही कारों से खेलता रहा। मेरी दी हुई कारें उपेक्षित सी एक ओर पड़ी रहीं। मेरे मन पर हल्की सी चोट लगी। पर तभी ध्यान आया, जब एक ऐसे बच्चे के रिजेक्शन या अस्वीकृति से जिसका मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं है, मुझे दुख हो रहा है, तो डेविड की मन:स्थिति कैसी होगी जिसके कोमल मन पर कितने ही आघात उसके प्रिय व्यक्तियों ने दिये हैं। स्वाभाविक ही है कि वह किसी के भी स्नेहमय व्यवहार को शंका की दृष्टि से देखता है।
सितंबर में कुछ आशंका के साथ मैंने डेविड का कक्षा में स्वागत किया। बड़े निस्पृह भाव से एक कोने का डेस्क चुन कर वह चुपचाप बैठा इधर-उधर देखता रहा। उसकी दृष्टि की वीतरागता ने मुझे विचलित सा कर दिया। जेल बदले जाने पर कैदियों की दृष्टि में ऐसी ही उदासीनता रहती होगी। एक स्नेह की लहर मन में उमड़ी। लगा उसे समझाऊँ, कहूँ, " बच्चे! तुम्हारी ज़िंदगी तो अभी शुरु ही हो रही है। कितना कुछ तुम्हारे आगे है। अभी से ऐसी हताशा कैसी? "
संभवत: स्नेह की उसी डोर ने मुझे उससे बाँधे रखा वरना अपनी ओर से तो उसने पूरा प्रयास किया कि मैं अपनी कक्षा से उसे निकाल दूँ। देर से आना, चीज़ें तोड़ना-फोड़ना, काम न करना, मुँहफट जवाब देना, उसके नित्य के काम थे। रूलर को तोड़ताड़ कर उसने पेंसिल की आकार का बना दिया था, पेंसिल को कुतर-कुतर कर रबर के आकार, और रबर का काम तो वह उँगलियों से ही चला लेता था। हाँ, इतना ज़रूर था कि वो दूसरे बच्चों को तंग नहीं करता था। उसकी लड़ाई मानो वयस्कों से ही थी। किसी भी बच्चे को किसी भी तरह की तकलीफ़ पहुँचने पर डेविड का व्यवहार उसके प्रति बहुत ही प्यार भरा होता था। उसके स्वभाव के इसी पहलू ने मुझे आश्वासन दिया कि यह केस पूरी तरह से हारा नहीं गया है।
क्रमश: (भाग ३ पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें)
----अचला दीप्ति कुमार
मेरा न्यायाधीश- भाग १
(ये संस्मरण पूर्णत: सत्य घटनाओं पर आधारित होने की वजह से , इसके मुख्य पात्र की पहचान को सुरक्षित रखने हेतु, उसका नाम बदल दिया गया है। )
बहुत दिनों से इसे पोस्ट करने का मन बना रही थी, मगर आज हो पा रहा है। जब इसे पहली बार अचला जी ने मुझे पढ़ कर सुनाया था, तो मेरे आँखों से निर्झर आँसू बहे थे। ये बस आज ही टाइप हो कर पूरा हो पाया है। अचला जी को लिखने की कला महादेवी वर्मा जी से विरासत में मिली है। वो टोरांटो में ही रहती हैं और अब टोरांटो स्कूल की एक रिटायर्ड शिक्षिका हैं।
मेरा न्यायाधीश
हम लोगों के मानस-पथ से न जाने कितने लोग गुज़रे हैं। कुछ लोग हल्के-हल्के क़दम उठाते हुये, कुछ ऐसे ढंग से कि उनके पदचिह्ण ढूँढे से भी नहीं मिलते, कुछ क़दम जमा-जमा कर हर पदक्षेप के साथ अपनी पहचान बनाते हुए। डेविड इस दूसरी श्रेणी के लोगों में एक था। आज सालों बाद भी उसकी याद मेरे मन में ताज़ा है और वह अपराधबोध भी जो उसकी याद के साथ अखण्ड रूप से जुड़ा है।
हम शिक्षकों को सिर्फ़ दो ही तरह के विद्यार्थी छाप छोड़ने वाले प्रतीत होते हैं - बहुत प्रखर बुद्धि और अच्छे व्यवहार वाले या मन्द बुद्धि व उद्दंड व्यवहार वाले। अभाग्यवश डेविड की गिनती इस दूसरे श्रेणी के विद्यार्थियों में होगी। पूत के पालने से ही दिखने वाले पाँवों की तरह अपने भावी विद्यार्थियों के रंग-ढंग हम लोगों को किंडरगार्टन से ही पहचानने में कठिनाई नहीं होती। कब किसने अपना आधा सेब अपने मित्र को खिला पाने के आग्रह में उसके मना करने पर भी उसके मुँह में इस तरह ठूँसा कि उसका साँस लेना भी दूभर हो गया, कब किसने क्लास में अपने सामने बैठी लड़की के बाल समान रूप से कटे न देख कर चुपचाप कैंची से काट कर कुछ ऐसे बराबर किये कि उसका सर ब्रश की तरह दिखने लगा, व किसने किसी से झगड़ा हो जाने पर दूसरे बच्चे को घोड़ा समझने की ग़लतफ़हमी में उसके मुँह पर स्किपिंग रोप की लगाम लगा कर सवारी गाँठ ली, ये क़िस्से हम लोगों को शुरु से ही सुनने को मिलते हैं। डेविड के बारे में भी इस तरह की बातें हम लोग सुनते रहते थे। पहली कक्षा में आने पर तो उसकी उद्दंडता और भी बढ़ गई। रोज़ ही तोड़-फोड़ या नई शरारत करना उसके कार्यक्रम का एक आवश्यक अंग बन गया था।
एक दिन उसकी शिक्षिका ने हाँफ़ते-हाँफ़ते स्टाफ़रूम में प्रवेश किया। गुस्से में मेज़ पर किताबें फेंक कर पहले तो डेविड को उसने एक ऐसी जगह भेजने की व्यवस्था की जिसकी भौगोलिक स्थिति के बारे में कोई ज्ञान नहीं है (टू हेल...), फिर उत्तेजित स्वर में बताया कि कक्षा में शरारत करने के कारण जब उसने डेविड को कोने में अकेले बैठने का आदेश दिया, तो उसने ’फ़...आफ़’ का धीमे पर श्रवण योग्य स्वर में पाठ करना शुरु कर दिया। इस अक्षम्य अपराध के कारण जब उसे प्रिंसिपल के पास ले जाया गया, तो उसने भोला सा मुँह बना कर कहा, " मेरे सामने मेज़ पर ग्लोब रखा था, उसमें मुझे अफ़्रीका देश दिखाई दिया। मुझे ये नाम हमेशा भूल जाता है, इसीलिये मैं बार बार उसी नाम को दोहरा था, मैंने वह नहीं कहा जो टीचर कह रही है।"
उस शिक्षिका को जहाँ डेविड पर क्रोध था, वहीं प्रिंसिपल पर भी खीझ थी, जिन्होंने ’बेनिफ़िट आफ़ डाउट’ देते हुये डेविड को कड़ी सज़ा नहीं दी थी। स्वभावत: यह, शिक्षिका को अपनी श्रवण शक्ति पर आक्षेप लगा। हम सब जहाँ डेविड की उद्दंडता पर क्षुब्ध हुये, वहीं, उसकी तुरत बुद्धि से चमत्कृत भी!
इस तरह के बच्चों को, साधारणत: सामान्य कक्षा मॆं नहीं रखा जाता। डेविड को भी विशेष कक्षा (बिहेवियर माडिफ़िकेशन क्लास) में भेजने की व्यवस्था होने लगी। स्कूल का सत्र समाप्त होने से पहले, प्रिंसिपल ने मुझे बुलाया और कहा, " डेविड एक तीक्ष्ण बुद्धि का बच्चा है। उसकी पारिवारिक स्थिति ऐसी रही है कि उसका भावनात्मक विकास ठीक से नहीं हो सका है। इतने छोटे से बालक को बाहर भेजने से पहले हम लोगों को उसे एक मौक़ा और देना चाहिये। तुम नये सत्र में, जब वो दूसरी कक्षा में आये, तो उसे अपने क्लास में रख कर कुछ दिन देखना। यदि परेशानी हुई, तो हम उसे फ़ौरन ही स्थानान्तरित कर देंगे। लिखा-पढ़ी तो हो ही चुकी है। "
--अचला दीप्ति कुमार
क्रमश: (भाग -२ पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें)
बहुत दिनों से इसे पोस्ट करने का मन बना रही थी, मगर आज हो पा रहा है। जब इसे पहली बार अचला जी ने मुझे पढ़ कर सुनाया था, तो मेरे आँखों से निर्झर आँसू बहे थे। ये बस आज ही टाइप हो कर पूरा हो पाया है। अचला जी को लिखने की कला महादेवी वर्मा जी से विरासत में मिली है। वो टोरांटो में ही रहती हैं और अब टोरांटो स्कूल की एक रिटायर्ड शिक्षिका हैं।
मेरा न्यायाधीश
हम लोगों के मानस-पथ से न जाने कितने लोग गुज़रे हैं। कुछ लोग हल्के-हल्के क़दम उठाते हुये, कुछ ऐसे ढंग से कि उनके पदचिह्ण ढूँढे से भी नहीं मिलते, कुछ क़दम जमा-जमा कर हर पदक्षेप के साथ अपनी पहचान बनाते हुए। डेविड इस दूसरी श्रेणी के लोगों में एक था। आज सालों बाद भी उसकी याद मेरे मन में ताज़ा है और वह अपराधबोध भी जो उसकी याद के साथ अखण्ड रूप से जुड़ा है।
हम शिक्षकों को सिर्फ़ दो ही तरह के विद्यार्थी छाप छोड़ने वाले प्रतीत होते हैं - बहुत प्रखर बुद्धि और अच्छे व्यवहार वाले या मन्द बुद्धि व उद्दंड व्यवहार वाले। अभाग्यवश डेविड की गिनती इस दूसरे श्रेणी के विद्यार्थियों में होगी। पूत के पालने से ही दिखने वाले पाँवों की तरह अपने भावी विद्यार्थियों के रंग-ढंग हम लोगों को किंडरगार्टन से ही पहचानने में कठिनाई नहीं होती। कब किसने अपना आधा सेब अपने मित्र को खिला पाने के आग्रह में उसके मना करने पर भी उसके मुँह में इस तरह ठूँसा कि उसका साँस लेना भी दूभर हो गया, कब किसने क्लास में अपने सामने बैठी लड़की के बाल समान रूप से कटे न देख कर चुपचाप कैंची से काट कर कुछ ऐसे बराबर किये कि उसका सर ब्रश की तरह दिखने लगा, व किसने किसी से झगड़ा हो जाने पर दूसरे बच्चे को घोड़ा समझने की ग़लतफ़हमी में उसके मुँह पर स्किपिंग रोप की लगाम लगा कर सवारी गाँठ ली, ये क़िस्से हम लोगों को शुरु से ही सुनने को मिलते हैं। डेविड के बारे में भी इस तरह की बातें हम लोग सुनते रहते थे। पहली कक्षा में आने पर तो उसकी उद्दंडता और भी बढ़ गई। रोज़ ही तोड़-फोड़ या नई शरारत करना उसके कार्यक्रम का एक आवश्यक अंग बन गया था।
एक दिन उसकी शिक्षिका ने हाँफ़ते-हाँफ़ते स्टाफ़रूम में प्रवेश किया। गुस्से में मेज़ पर किताबें फेंक कर पहले तो डेविड को उसने एक ऐसी जगह भेजने की व्यवस्था की जिसकी भौगोलिक स्थिति के बारे में कोई ज्ञान नहीं है (टू हेल...), फिर उत्तेजित स्वर में बताया कि कक्षा में शरारत करने के कारण जब उसने डेविड को कोने में अकेले बैठने का आदेश दिया, तो उसने ’फ़...आफ़’ का धीमे पर श्रवण योग्य स्वर में पाठ करना शुरु कर दिया। इस अक्षम्य अपराध के कारण जब उसे प्रिंसिपल के पास ले जाया गया, तो उसने भोला सा मुँह बना कर कहा, " मेरे सामने मेज़ पर ग्लोब रखा था, उसमें मुझे अफ़्रीका देश दिखाई दिया। मुझे ये नाम हमेशा भूल जाता है, इसीलिये मैं बार बार उसी नाम को दोहरा था, मैंने वह नहीं कहा जो टीचर कह रही है।"
उस शिक्षिका को जहाँ डेविड पर क्रोध था, वहीं प्रिंसिपल पर भी खीझ थी, जिन्होंने ’बेनिफ़िट आफ़ डाउट’ देते हुये डेविड को कड़ी सज़ा नहीं दी थी। स्वभावत: यह, शिक्षिका को अपनी श्रवण शक्ति पर आक्षेप लगा। हम सब जहाँ डेविड की उद्दंडता पर क्षुब्ध हुये, वहीं, उसकी तुरत बुद्धि से चमत्कृत भी!
इस तरह के बच्चों को, साधारणत: सामान्य कक्षा मॆं नहीं रखा जाता। डेविड को भी विशेष कक्षा (बिहेवियर माडिफ़िकेशन क्लास) में भेजने की व्यवस्था होने लगी। स्कूल का सत्र समाप्त होने से पहले, प्रिंसिपल ने मुझे बुलाया और कहा, " डेविड एक तीक्ष्ण बुद्धि का बच्चा है। उसकी पारिवारिक स्थिति ऐसी रही है कि उसका भावनात्मक विकास ठीक से नहीं हो सका है। इतने छोटे से बालक को बाहर भेजने से पहले हम लोगों को उसे एक मौक़ा और देना चाहिये। तुम नये सत्र में, जब वो दूसरी कक्षा में आये, तो उसे अपने क्लास में रख कर कुछ दिन देखना। यदि परेशानी हुई, तो हम उसे फ़ौरन ही स्थानान्तरित कर देंगे। लिखा-पढ़ी तो हो ही चुकी है। "
--अचला दीप्ति कुमार
क्रमश: (भाग -२ पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें)
Friday, March 27, 2009
परिच्छेद (paragraph) - एक जूसी सैंडविच

किसी भी पैराग्राफ़ को लिखते समय हम उसकी तुलना एक सैंडविच से करेंगे। एक बड़ा सा स्वादिष्ट juicy सैंडविच। यानि कि दो ब्रेड (रोटी) के टुकड़ों के बीच , चटनी, टमाटर के टुकड़े, लेटस पत्ते, चीज़, चिकन आदि से भरा हुआ सैंडविच।
कोई भी पैराग्राफ तीन भागों का होता है।

शीर्षक पंक्ति (topic sentence),
सहायक विस्तृत जानकारी (supporting details),
समाप्ति पंक्ति (concluding sentence).
तो सबसे पहले जो ब्रेड का टुकड़ा है उसे हम मानेंगे- शीर्षक पंक्ति। यानि कि जिस विषय के बारे में हम लिखना चाहते हैं, उस के बारे में इस पंक्ति के द्वारा हम उस शीर्षक की जानकारी देंगे।
उदाहरणार्थ- अगर हमारा विषय है- मेरा देश। तो ये पंक्ति कुछ ऐसी हो सकती है- मेरा देश भारत मुझे बहुत प्यारा है। अर्थात इस पंक्ति से ये पता चल गया कि इस पैराग्राफ़ में मैं अपने देश भारत खूबियाँ बताने वाली हूँ।
अब आती है supporting details या सहायक विस्तृत जानकारी पंक्तियों की बारी। तो हम इसे बीच में भरे जाने वाली चीज़ों के रूप में देखेंगे। उम्म्म...मुझे टमाटर पसंद है, तो मैं अपने सैंडविच में टमाटर डालूँगी, यानि पैराग्राफ़ को थोड़ा जूसी बनाऊँगी।
.
उदाहरणार्थ- शायद मेरा पहला detail हो- मेरे देश में लोग मिलजुल कर रहते हैं और सब एक दूसरे से प्यार करते हैं। फिर मुझे cheese भी पसंद है तो मैं इसमें cheese यानि कि कुछ और details डालूँगी। इस तरह मैं जितना सुंदर पैराग्राफ़ चाहूँ बना सकती हूँ।
.
फिर आख़िर में आती है concluding sentence या समाप्ति पंक्ति। ये भी तो ब्रेड का ही टुकड़ा है, यानि कि काफ़ी कुछ topic sentence जैसा दिखने में। तो इस पंक्ति को मैं कुछ कुछ अपने शीर्षक पंक्ति जैसा ही रखूँगी। शायद कुछ ऐसा- मेरे देश भारत जैसा प्यारा और कोई देश नहीं।

इस तरह लिखते हैं हम पैराग्राफ़। बच्चे को एक कागज़ पर एक सैंडविच का माडेल बना कर दे दें (या इस लिंक से चित्र प्रिंट कर लें) और उसे उस ही पर लिखने बोलें। (इसे graphic organizer कहते हैं)। बाद में बच्चा इन सब पंक्तियों को अपनी पुस्तिका में एक साथ लिख सकता है, जो कि अब एक पैराग्राफ़ की शक्ल ले चुका है।
कक्षा में पढ़ाने के लिये हम इस सैंडविच माडेल का नाना तरह से प्रयोग करते हैं। बच्चों को ग्रूप मॆं विभाजित करके, उनको जोड़ी में पैरग्राफ सजाने आदि का काम देकर आदि। ये एक बहुत ही कारगर उपाय है, जो कि हम बच्चे को पैराग्राफ़ लिखना सिखाने में कर सकते हैं।
Tuesday, January 20, 2009
क्या आपका बच्चा पढ़ कर समझ लेता है? रीडिंग स्ट्रैटिजी-३

पिछली बार इस श्रॄंखला के भाग-१ और भाग २ में मैंने बच्चों को पढ़ना सिखाने या पढ़ कर बेहतर समझ पाने के कुछ उपायों का ज़िक्र किया था। आज एक ऐसा ही अन्य उपाय-
इसे हम Reading Response लिखना (पढ़ कर अपने विचार व्यक्त करना) कहते हैं। अर्थात, बच्चा कोई भी किताब पढ़ कर उसके बार में लिखे। मगर क्या लिखे? ज़रूरी है कि बच्चा जो लिखे वो एक ढाँचे में हो और वैज्ञानिक हो। बच्चा जो कुछ भी पढ़े (आज हम सिर्फ़ फ़िक्शन (काल्पनिक) किताबों की ही बात करते हैं), उसे लिखे, ये बहुत ज़रूरी है। इससे न सिर्फ़ उसकी चिंतन शक्ति विकसित होती है बल्कि लिखने का भी अभ्यास होता है।
मगर वो क्या लिखे-
ज़रूरी है कि वो 3R का इस्तेमाल करे अपना रीडिंग रेस्पांस लिखते वक़्त। 3R अर्थात- Retell, Relate, Reflect। यानि कि पहले तो बच्चे ने जो पढ़ा उसे अपने शब्दों में दोबारा लिखे (RETELL). फिर RELATE अर्थात अपने जीवन या किसी और किताब से उसे जोड़ने की कोशिश करे, और आख़िर में REFLECT अर्थात उस किताब के बारे में उसकी राय दे नाना तरहों से। इन तीनों को अब हम विस्तार से देखते हैं।
RETELL या अपने शब्दों में फिर से किताब की कहानी को दोहराना। इसे करने के लिये बच्चे को कहें कि वो कुछ बातें ज़रूर ही बताये-
१) चरित्र के नाम (name of the characters)
२) परिवेश (setting)
3) समस्या (problem)- हर कहानी में एक समस्या पैदा होती है, वो क्या है?
4)घटनायें (events)- कहानी के उस समस्या के समाधान के लिये और क्या घटनायें होती हैं?
5) समाधान (solution)- समस्या का समाधान।
RELATE- ये एक ज़रूरी प्रक्रिया है। वैज्ञानिक दृष्टि से माना जाता है कि इस तरह के प्रक्रिया से बच्चे की चिंतन/मंथन शक्ति विकसित होती है। RELATE तीन तरह के हो सकते हैं।
1) text to self
2)text to text
3)text to world/media
बच्चे को कहें कि जब वो RETELL पूरा कर ले तो जिस किताब के बारे में वो लिख रहा है उस किताब को अपनी ज़िंदगी के किसी घटना से जोड़ने की कोशिश करे या पढ़ते वक़्त उसे जो कुछ याद आया लिखे। और वो ये भी बताये कि किताब के कौन से हिस्से को पढ़ कर उसे ये याद आया। इसे ही RELATE कहेंगे। वो अपनी ज़िंदगी की किसी घटना से उस कहानी को जोड़े तो text to self हुआ, अगर किसी और पहले पढ़ी किताब की याद आती है उसे तो फिर text to text relation हुआ और अगर वो इस कहानी को किसी दुनिया में हुये घटना से जोड़ता है जो उसने संभवत: किसी फ़िल्म या टीवी पर देखी हो, तो text to media /world हुआ।
अब बारी आती है REFLECT की: अर्थात बच्चे से कहें कि आख़िर में वो ये लिखे कि उसे इस किताब में क्या सबसे पसंद आया, क्या नहीं आया और क्यों? इसके अलावा, इस किताब को पढ़ते वक़्त उसके ज़ेहन में क्या क्या प्रश्न आये। इस कहानी का अंत वो किस तरह करना चाहेगा और इस कहानी में क्या बदलना चाहेगा आदि।
अगर इतनी चीज़ें बच्चा किसी किताब को पढ़ने के बाद अच्छे से कर लेता है तो वो इस किताब को समझ गया है और इस तरह उसके पढ़ने और लिखने की क्षमता भी विकसित होती है। ये सारे स्ट्रैटिजी काफ़ी अनुसंधान के बाद विकसित किये गये हैं और आज़माये हुये हैं। आशा है कि इस लेख से आप भी अपने बच्चे को पढ़ पाने और उसे गहराई से समझ पाने में मदद कर पायेंगे।
अगले अंक में Literature Circle/Guided Reading पर कुछ बातें।
Sunday, December 07, 2008
रीडिंग स्ट्रैटिजी (पढ़ने के उपाय)- भाग २

इस शुक्रवार एक रीडिंग वर्कशाप में जाना हुआ। अर्से बाद किसी ऐसे अच्छे प्रोफ़ेशनल डेवेलप्मेन्टल वर्क्शाप में जाना हुआ और बहुत कुछ सीखने मिला। आज उसी वर्क्शाप में बताई गई एक रीडिंग स्ट्रैटिजी का उल्लेख कर रही हूँ। (ये वैसे तो कक्षा में बच्चों को पढ़ाने के लिये एक कारगर उपाय है, मगर थोड़ी फेर-बदल कर, मां-बाप बच्चों के साथ इसे घर पर भी कर सकते हैं)
पिछले लेख में मैंने comprehension skills को बढ़ाने के लिये कुछ उपायों की बात की थी। आज हम बात करते हैं रीडर्स थीएटर (पता नहीं हिन्दी में क्या कहेंगे) की। ये एक बहुत ही आसान मगर कारगर तरीक़ा है बच्चों को समझाने का और पढ़ने और पढ़ कर समझने की क्षमता को बढ़ाने का।
किसी भी किताब को (किसी भी भाषा में) जो कि बच्चा पढ़ रहा है ज़रा सी मेहनत से स्क्रिप्ट का रूप दे दें। या कोई बना बनाया स्क्रिप्ट रूपी किताब ले लें। एक एक रोल हर बच्चे में बाँट दें और उस स्क्रिप्ट को बच्चों को अपने रोल को पढ़ने बोलें।
इसे कैसे करें?
मोडेलिंग अर्थात पढ़ाना- बच्चों को पहले हर एक पात्र की एक लाइन पढ़ कर ख़ुद दिखाइये। बच्चों से ही पूछिये कि उन्हें क्या लगता है कि फ़लां पात्र की अवाज़ कैसी होगी (मान लीजिये किसी चुड़ैल की आवाज़ है तो तीखी सी, किसी राजा की : धीर-गंभीर, सूत्रधार की: बुलंद मगर सौम्य आदि)। फिर उन्हें पढ़ कर दिखाइये।
बहुत बहुत ज़रूरी है कि कक्षा का माहौल comfortable हो। अगर मुझे किसी ऐसी स्थिति में डाल दिया जाये, जहाँ मैं अगर अच्छा न बोल पाऊँ और लोग हँसें तो मैं तो कभी भी ऐसी चीज़ों का हिस्सा न बनूँ। इसलिये पहले ही बात साफ़ हो कि कोई बच्चा किसी बच्चे के बुरा पढ़ने पर हँसे नहीं, बल्कि हर कोई हर किसी से इज़्ज़त से पेश आये।
बच्चों की बारी- अब बच्चों से सिर्फ़ पहले पृष्ठ में अपने अपने रोल को पढ़ने बोलें। कोई बच्चा अगर ज़्यादा संकोची है तब उसे कहिये कि " ह्म्म, मेरे ख़याल से ये राजा के बोलने वाली लाइन छोटी सी है, तुम इसे पढ़ लो।"
पहले ही पृष्ठ को ४-५ बार बच्चों से पढ़वाइये, इस से उनका संकोच जाता रहेगा और वो अगले प्रृष्ट के लिये तैयार रहेंगे। अब पूरी कहानी बच्चों से पढ़वा डालिये।
आखि़र में- आखिर में बच्चों से प्रश्न पूछिये कि हर पात्र के रोल के बारे में सबके क्या विचार हैं और फ़लां बच्चा क्या करता तो और अच्छा पढ़ सकता था। सबका feedback लेना ज़रूरी है। फिर बच्चों से कहानी संबंधित सवाल पूछिये, इससे पता चलेगा कि बच्चों ने उस कहानी को कितना समझा।
पिछले लेख में मैंने comprehension skills को बढ़ाने के लिये कुछ उपायों की बात की थी। आज हम बात करते हैं रीडर्स थीएटर (पता नहीं हिन्दी में क्या कहेंगे) की। ये एक बहुत ही आसान मगर कारगर तरीक़ा है बच्चों को समझाने का और पढ़ने और पढ़ कर समझने की क्षमता को बढ़ाने का।
किसी भी किताब को (किसी भी भाषा में) जो कि बच्चा पढ़ रहा है ज़रा सी मेहनत से स्क्रिप्ट का रूप दे दें। या कोई बना बनाया स्क्रिप्ट रूपी किताब ले लें। एक एक रोल हर बच्चे में बाँट दें और उस स्क्रिप्ट को बच्चों को अपने रोल को पढ़ने बोलें।
इसे कैसे करें?
मोडेलिंग अर्थात पढ़ाना- बच्चों को पहले हर एक पात्र की एक लाइन पढ़ कर ख़ुद दिखाइये। बच्चों से ही पूछिये कि उन्हें क्या लगता है कि फ़लां पात्र की अवाज़ कैसी होगी (मान लीजिये किसी चुड़ैल की आवाज़ है तो तीखी सी, किसी राजा की : धीर-गंभीर, सूत्रधार की: बुलंद मगर सौम्य आदि)। फिर उन्हें पढ़ कर दिखाइये।
बहुत बहुत ज़रूरी है कि कक्षा का माहौल comfortable हो। अगर मुझे किसी ऐसी स्थिति में डाल दिया जाये, जहाँ मैं अगर अच्छा न बोल पाऊँ और लोग हँसें तो मैं तो कभी भी ऐसी चीज़ों का हिस्सा न बनूँ। इसलिये पहले ही बात साफ़ हो कि कोई बच्चा किसी बच्चे के बुरा पढ़ने पर हँसे नहीं, बल्कि हर कोई हर किसी से इज़्ज़त से पेश आये।
बच्चों की बारी- अब बच्चों से सिर्फ़ पहले पृष्ठ में अपने अपने रोल को पढ़ने बोलें। कोई बच्चा अगर ज़्यादा संकोची है तब उसे कहिये कि " ह्म्म, मेरे ख़याल से ये राजा के बोलने वाली लाइन छोटी सी है, तुम इसे पढ़ लो।"
पहले ही पृष्ठ को ४-५ बार बच्चों से पढ़वाइये, इस से उनका संकोच जाता रहेगा और वो अगले प्रृष्ट के लिये तैयार रहेंगे। अब पूरी कहानी बच्चों से पढ़वा डालिये।
आखि़र में- आखिर में बच्चों से प्रश्न पूछिये कि हर पात्र के रोल के बारे में सबके क्या विचार हैं और फ़लां बच्चा क्या करता तो और अच्छा पढ़ सकता था। सबका feedback लेना ज़रूरी है। फिर बच्चों से कहानी संबंधित सवाल पूछिये, इससे पता चलेगा कि बच्चों ने उस कहानी को कितना समझा।
( टिप: "तुम उस पात्र की जगह होते तो क्या करते" जैसे सवाल बच्चों की चिंतन शक्ति को बढ़ाने में मदद करते हैं, न कि उस राजा का क्या नाम था जैसे सवाल)
इस तरह आप टेक्स्ट बुक या किसी भी किताब से एक पीरियड बच्चों के साथ इस तरह का लेसन दे सकते हैं और ये न सिर्फ़ मज़ेदार होगा बल्कि बच्चे बहुत जल्द समझ भी जायेंगे।
इस तरह आप टेक्स्ट बुक या किसी भी किताब से एक पीरियड बच्चों के साथ इस तरह का लेसन दे सकते हैं और ये न सिर्फ़ मज़ेदार होगा बल्कि बच्चे बहुत जल्द समझ भी जायेंगे।
Wednesday, November 19, 2008
Me To We - ’मैं से हम तक’

सबसे ज़्यादा ताक़त होती है आज की युवा पीढ़ी में। दुनिया भर के करोडों बच्चे जिन्हें उनका प्राप्य अधिकार नहीं मिल पा रहा है, उन बच्चों को मुक्ति दिलाने के इस संघर्ष में मैं भी साथ हूँ। अपने स्कूल में इस अभियान को हम कुछ टीचर्स और बच्चों ने मिल कर शुरु किया है और अब ये ज़ोर पकड़ रहा है। ’मी टु वी’ (मैं से हम तक) हमारा एक छोटा सा ग्रूप है, सितंबर से ही शुरु हुआ है स्कूल में, कोई ८-१० बच्चे, और ४ टीचर का ग्रूप। पूरा स्कूल हमारे साथ है। हम हिस्सा हैं, उस ’मी टु वी’ के बड़े अभियान का जो कि बच्चों को अच्छी शिक्षा, अच्छा खाना, और बाल-मजदूरी से मुक्ति दिलाने में हर देश के बच्चों को वैश्विक रूप से मदद करता है। ’मी टु वी’ का चैरिटी पार्टनर है ’फ़्री द चिल्रेन’। इस संस्था ने ५०० स्कूलों का निर्माण किया है और ग़रीब देशों में स्वच्छ पीने के पानी की व्यवस्था आदि की है। हमारा देश भारत भी उन देशों मॆं से एक है जहाँ ये संस्था अपना योगदान दे रही है।
प्रश्न उठता है- हम अकेले कर क्या सकते हैं? हम अकेले दुनिया बदल सकते हैं। छोटी छोटी बातों से ही तो शुरु होता है ये ’मैं से हम’ तक का सफ़र। छोटी सी बात- राह चलते हुये एक आदमी का कोई सामान गिर गया हो तो उस से अनुमति ले कर उसे उठा कर वो चीज़ें दे देना...इतने से ही हो सकती है शुरुआत। भिखारी को भीख देने के पक्ष में नहीं, मगर उसे सही रास्ते तक ले जाना...काम का कोई जुगाड़ कर देना...कहना आसान है, करना उतना नहीं, समझती हूँ मगर जैसा कहा, छोटी चीज़ों से ही शुरुआत होती है। हम अकेले क्या सिस्टम बदल सकते हैं? बरसों से चला आ रहा सिस्टम? नहीं। पर अपने आसपास को तो बदल सकते हैं। आसपास से ही दुनिया शुरु होती है।
हमारे इस ग्रूप ने इस बार एक त्यौहार के मौक़े पर एक ’फ़ूड ड्राइव’ आयोजित किया। न ख़राब होने वाले डब्बे बंद खाने का एक डिब्बा, हर बच्चे को लाना था। ये डिब्बा यहाँ ७० सेन्ट्स में मिलता है, और ज़्यादा से ज़्यादा १ डालर। जब सब डब्बे जमा हो गये, हमने उन्हें ग़रीबों और भूखों तक पहुँचा दिया। (यहाँ की सुविधा अच्छी है, फ़ायर स्टेशन पर जा कर ये सारा खाना पहुँचा आना था और वो यथोचित जगहों पर पहुँच गया)। इस तरह कुछ भूखे बच्चों की कुछ मदद तो हम कर ही पाये।
हमारा स्कूल चाहता है कि हम इतना पैसा साल के आख़िरी तक जमा कर लें कि किसी एक देश में जहाँ बच्चों को पढ़ने के लिये किताबें नहीं मिलतीं, या स्कूल बनाये जाने चाहिये, उस में कुछ मदद कर सकें। ५ देशों में से एक देश को हमारा स्कूल चुनेगा। कैसे? ये ५ देश हैं- भारत, अरीज़ोना-मेक्सिको, चीन, एक्यूएडोर, कीन्या। सारे बच्चे किसी एक देश के लिये वोट करेंगे। किस देश को मदद की ज़्यादा ज़रूरत है वो निर्णय लेंगे बच्चे, ’मी टु वी’ द्वारा बनाये गये पोस्टर, जानकारी, प्रेसेन्टेशन आदि से। यहाँ तक कि माता-पिता को भी वोट देने का अधिकार होगा। ये माता पिता पेरेंट-टीचर नाइट के दिन वोट डालेंगे। फिर हम नाना तरीकों से पैसा इकट्ठा करेंगे। पूरी कम्यूनिटी को प्रोत्साहित करेंगे कि वो अपना योगदान दें। और इस पैसे को चुने गये देश में किसी स्कूल के निर्माण या कोई भी और मदद के लिये उपयोग में लाया जायेगा। थोड़ा ही सही, मगर बूँद बूँद से ही सागर बनता है।
मैं बहुत उत्साहित हूँ, इस ग्रूप का हिस्सा बन कर। बच्चों में कुछ करने का जोश और उनके जोशीले ख़याल, सुझाव, अचंभित करते हैं मुझे। उन्हें मार्गदर्शन करते हुये दरअसल मैं ही ज़्यादा सीखती हूँ इनसे। कहने की बात नहीं, कि ज़िंदगी है, घर-संसार छोड़ कर कुछ कर पाने की हिम्मत नहीं है, न ही हौसला। मगर इस तरह से जुड़ कर भी अगर कुछ भी बदल सकें हम, थोड़ा भी योगदान दे सकें तो भी कम नहीं शायद।
’मी टु वी’ पर ज़्यादा जानकारी के लिये और आप क्या कर सकते हैं- यहाँ जाइये
(आप के पास अगर कोई सुझाव है, किसी तरह का योगदान करना चाह्ते हैं आप, कैसे, आपका स्वागत है।)
Monday, November 17, 2008
क्या आपका बच्चा पढ़ कर समझ लेता है?

आज की छुट्टी का सदुपयओग करने की कोशिश है ये पोस्ट।
चाहे अंग्रेज़ी हो या हिन्दी या कोई और भाषा, ज़रूरी है कि बच्चा जो भी पढ़ रहा हो, उसे समझे। कई बार बच्चे बहुत साफ़ और सुंदर, बिना रुके आपको पूरी क़िताब पढ़ कर सुना देंगे मगर, उस किताब से संबंधित प्रश्न पूछने पर वो जवाब नहीं दे पाते। इस के कई कारण हो सकते हैं। कुछ गंभीर, जैसे लर्निंग डिसबिलिटी, या कोई और संगीन कारण, और कई बार कुछ हमारी उच्चापेक्षा और सही दिशा न दिखा पाना।
आइये जानें और समझें कि किस तरह बच्चे की comprehension skills (पढ़ कर समझ पाने की क्षमता) को बढ़ाया जाये। कुछ रीडिंग स्ट्रैटेजी (पढ़ने की पद्धतियाँ) पर ध्यान दें।
बच्चे का रोज़ आधे से एक घंटा पढ़ना (चाहे कोई भी भाषा हो), चाहे वो कोई किताब हो, या अख़बार, ज़रूरी है। बहुत ज़रूरी। कभी कभी बच्चे अपनी समझ से ज़्यादा ऊँची किताब पसंद कर लेते हैं और उसे पढ़ने लगते हैं, फिर वो बोरिंग हो जाती है उनके लिये और वो उसे नहीं पढ़ते। बच्चा सही किताब कैसे चुने? इसका एक कारगर नियम है ५ उंगली सिद्धांत (five finger rule) जब बच्चा किताब पढ़ना शुरु करे तो पहले पृष्ठ पर अगर उसे ५ ऐसे शब्द मिलते हैं जो कि उसे समझ नहीं आते, तब वो किताब उसके लिये बहुत कठिन है, उसे उस किताब को नहीं पढ़ना चाहिये। ध्यान रहे कि बच्चे का मनोरंजन होना ज़रूरी है पढ़ते वक़्त। अगर उस किताब के पहले पृष्ठ पर सारे शब्द उसे आसानी से समझ आ गये तो वो किताब कुछ ज़्यादा ही आसान है उसके लिये। और १-२ शब्द कठिन हैं, तब वो किताब सही है उसके लिये। (मैं यहाँ अंग्रेज़ी में पढ़ने की बात कर रही हूँ पर सभी भाषा में यही नियम लागु होंगे। वैसे भी "language skills are transferable")
आइये अब कुछ रीडिंग स्ट्रैटेजीज़ के बारे में बात करें। कैसे समझें कि बच्चे ने पढ़ कर समझा या नहीं? या कैसे बेहतर समझा पायें उसे। इन का उपयोग टीचर स्कूल में और अभिभावक घर मॆं कर सकते हैं।
अगले कई अंकों में इन सब स्ट्रैटेजीज़ को विस्तार से समझाने की कोशिश होगी।
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