गज़ल-ज़िंदगी रोज़ आज़माती है
कोई खुश्बू कहीं से आती है
मेरे घर की ज़मीं बुलाती है
ज़िंदगी इक पुरानी आदत है
यूँ तो आदत भी छूट जाती है
जाने क्या-क्या सहा किया हमने
पत्थरों पर शिकन कब आती है
आप होते हैं पर नहीं होते
रात यूँ ही गुज़रती जाती है
तज्रिबा है हरेक पल ऐ दोस्त
ज़िंदगी रोज़ आज़माती है
8 comments:
जिन्दगी यूँ ही आदत बन गयी है।
सच है ज़िन्दगी रोज़ आजमाती है।
आप होते हैं पर नहीं होते
रात यूँ ही गुज़रती जाती है
वाह...मानोशी जी वाह...इस खूबसूरत ग़ज़ल का हर शेर दिलकश है मगर ऊपर वाला मैं अपने साथ लिए जा रहा हूँ...मेरी दिली दाद कबूल करें...
नीरज
बड़े दिनों बाद दर्शन हुये आपके।
ये ग़ज़ल आप ने पहले भी लगायी थी क्या? मतले की टीस समझ सकता हूँ...और दूसरा शेर तो खैर बस लाजवाब है।
गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई !
http://hamarbilaspur.blogspot.com/2011/01/blog-post_5712.html
सच है। जिन्दगी इम्तहान लेती है। सरल भाषा में प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति। खूबसूरत रचना।
पेह्ला शेर लिखने वाला बाकी के शेर कैसे लिख गया..
मेर मत्लब विरोधाभास से है..
हालान्कि सब है बे-जोड
यानी शान्दार /
dost har pal naya tajurba hai
zindagi roj aajmati hai
bilkul sach mahaj kalpna nai
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