Monday, July 09, 2012

आ उठ चल बाहर जीवन है



जीवन विषाद नहीं हैसुख है,
है मन का यह भ्रम, जो दुख है,
मधुर स्मृति से आलिंगन-बद्ध
बैठ राह रोता मूरख है|

डर कर काँप रहा यह तन तर,
इक बिजली के कंपन ही से,
करुणा छोड़ स्वयं अपने पर,
आ उठ चल, बाहर जीवन है।

चल पथरीले रस्ते पर से,
धूप कड़ी गुज़रती सर से,
ना डरना तू कठिन प्रहर से,
छाँव लिये आगे तरुवर है।

द्वार-द्वार भटकता पागल
छोटी नाव, डराता सागर,
माँगे नीर, मिले लवण-जल
हाथ मे निज मीठा जल है।


खड़ी निराशा है मुँह बाये,

घेरे तत्पर अवसर पाये

दिखे अन्धेरों के साये, पर

गुफ़ा के अन्तिम द्वार किरण है।

आ उठ चल, बाहर जीवन है।



8 comments:

Ashish Shrivastava said...

"गुफ़ा के अन्तिम द्वार किरण है।

आ उठ चल, बाहर जीवन है।"

नही जी, बाहर बारीश हो रही है, भीग जाउंगा! यदि किरण आयी है तो सोच सकता हूं लेकिन बारीश मे वो क्यों आयेगी!

Yashwant R. B. Mathur said...

गुफ़ा के अन्तिम द्वार किरण है।

आ उठ चल, बाहर जीवन है।


ये हुई न बात!

बेहतरीन रचना।


सादर
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‘जो मेरा मन कहे’ पर आपका स्वागत है

प्रवीण पाण्डेय said...

बाहर आयें अपने कवच से..

दिगम्बर नासवा said...

चल पथरीले रस्ते पर से,
धूप कड़ी गुज़रती सर से,
ना डरना तू कठिन प्रहर से,
छाँव लिये आगे तरुवर है ...

बहुत सुन्दर ... निराला की पंक्तियों सरीखा ... आनंद आया पढ़ने के बाद पूरी रचना ..

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुंदर .... जीवन को प्रेरित करती सुंदर रचना

abcd said...

Wednesday, March 23, 2011
लौट चल मन..
was a "low-tide"
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Monday, July 09, 2012
आ उठ चल बाहर जीवन है
This one is a "High tide"

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 12 -07-2012 को यहाँ भी है

.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... रात बरसता रहा चाँद बूंद बूंद .

Nidhi said...

पोसिटिव सोच वाली रचना.