विष हो या अमृत हो जीवन
सहज भाव से पी लेते हैं
सघन कंटकों भरी डगर है
हर प्रवाह के साथ भँवर है
आगे हैं संकट अनेक, पर
पीछे हटना भी दुष्कर है।
विघ्नों के इन काँटों से ही
घाव हृदय के सी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है
नियति हमारा सबकुछ लूटे
मन में बसा घरौंदा टूटे
जग विरुद्ध हो हमसे लेकिन
जो पकड़ा वो हाथ न छूटे
कठिन बहुत पर नहीं असम्भव
इतनी शपथ अभी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है
श्वासों के अंतिम प्रवास तक
जलती-बुझती हुई आस तक
विलय-विसर्जन के क्षण कितने
पूर्णतृप्ति-अनबुझी प्यास तक
बड़वानल ही यदि यथेष्ट है
फिर हम राह वही लेते हैं
आओ साथी जी लेते हैं
--अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’
--अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’
11 comments:
सरलता, तरलता, प्रवाह, उछाह, सब पिरो लाये हैं। बहुत ही अच्छी कृति।
बहुत सुन्दर......गहरी अभिव्यक्ति..........
खूबसूरत प्रस्तुति
बेह्द उम्दाऽउर गहन प्रस्तुति…………।
sundar rachna ..gehrai ko liye huve..
सहजता के साथ बहता हुआ सा गीत !!!!
सुन्दर!
यह रचना तो मुझे इतनी अच्छी लगी कि आज इसे ही चर्चा मंच का हैडिंग बना डाला!
बहुत सुन्दः भाव और शब्द चयन |बधाई
आशा
सघन कंटकों भरी डगर है,हर प्रवाह के साथ भवर है।
सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई।
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ........
गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई !
http://hamarbilaspur.blogspot.com/2011/01/blog-post_5712.html
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